नाटक: शैतान(ﷺ) का बयान
मूल: आरज़ अली मतुब्बर। संपादन एवं पटकथा: आसिफ मोहियुद्दीन
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संपादक की बात
जब मैंने आरज़ अली मतुब्बर की “शैतान के इक़बालिया बयान” पहली बार पढ़ी, उसी क्षण लगा—समूचा प्रसंग मानो मेरी आँखों के सामने घट रहा है। जैसे फ़िल्म में देखते हैं, ठीक वैसा ही सब दृश्य आँखों के आगे सजीव हो उठा। तभी से यह कहानी नाटक या सिनेमा के रूप में देखने की एक सुप्त आकांक्षा मन में जड़ पकड़ने लगी। बाद में बहुत समय बीत गया; किसी ऐसे व्यक्ति का पता न मिला जो इस कहानी का पटकथा रूपांतरण कर सके। ऐसे एक मास्टरपीस पर नाटक या फ़िल्म बन सकती थी, पर हमारे देश में मुक्त विचार का क्षेत्र अत्यंत सीमित है—इसलिए वैसा कुछ हुआ नहीं। शायद कोई साहस भी न करे, क्योंकि सभी में भय है। अतः मैंने किसी और की प्रतीक्षा किए बिना स्वयं एक पटकथा लिख डाली। जीवन में मैंने कभी पटकथा नहीं लिखी; अतः इस विषय में मैं एकदम अननुभवी हूँ। फिर भी प्रयत्न किया। उम्मीद है, भविष्य में कोई इस नाटक के मंचन का साहस करेगा—इसी अपेक्षा के साथ। उल्लेखनीय है—यदि इस पटकथा का कहीं उपयोग करना हो तो मेरी अनुमति लेना अनिवार्य है। अनुमति के बिना कृपया इस लेख का उपयोग न करें।
प्रस्तावना
मानव सभ्यता में कथा-परंपरा का आरंभ जिस दिन हुआ, उसी दिन से एक खल या दुष्ट चरित्र की आवश्यकता भी प्रकट हुई। किसी भी कथा की पूर्णता हेतु एक सशक्त खलनायक अपरिहार्य है। प्राचीन काल से ही दुःख–दुरवस्था, नैराश्य और जीवन की जटिलताओं से आक्रांत मनुष्य किसी सुपरहीरो, किसी करिश्माई नेता या किसी उद्धारक का स्वप्न देखता रहा है—जिसके आगमन से वह मुक्त होगा। यह मनुष्य की आदिमतम आकांक्षाओं में एक है। इस आकांक्षा को केंद्र कर मानव ने युगों–युगों में लाखों कथाएँ रचीं। किंतु कथा को रमणीय व आकर्षक बनाने हेतु हर समय एक दुरंधर खलनायक की दरकार पड़ती है—ऐसा पात्र जो अत्यंत दुष्ट हो, जिसकी वजह से मनुष्य के विविध दु:साहस हों, जिसे सभी संकटों के लिए दोषी ठहरा कर अन्य लोग अपनी जवाबदेही से बच निकलें; जो नायक के समकक्ष टकरा सके और अंततः जिसका पतन हो—ताकि नायक की विजय से मानव–दुरवस्था का अंत हो। ऐसे खलनायक के बिना कोई कथा जनता के हृदय में स्थान नहीं पाती। कथा में किसी न किसी को समस्त समस्याओं का वाहक ठहराना अत्यंत आवश्यक ठहरता है। इसलिए एक अच्छे कथाकार को कथा में एक खलनायक रखना होता है और अंत में उसका पराभव भी सुनिश्चित करना पड़ता है; नायक नायिका अथवा असहाय जन को उद्धार दे—इसका भी ध्यान रखना होता है।
विभिन्न सभ्यताओं, जातियों और भाषाओं में अब तक जितने भी खल या दुष्ट चरित्र रचे गए—उनमें संभवतः सबसे बहुविध और महत्वपूर्ण पौराणिक चरित्र “इब्लीस” या “शैतान” है। हजारों भाषाओं में यह चरित्र भिन्न-भिन्न नामों और रूपों में विद्यमान है—यह दूसरे किसी पात्र के साथ शायद घटित नहीं हुआ। किसी कथा–चरित्र या घटना का मूल्यांकन करते समय सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सबको समान अवसर दिया जाए—सबके साथ इंसाफ़ हो। रामायण के लेखक ने चाहे रावण को जितना कुरूप क्यों न चित्रित किया हो, अंततः उन्हें स्वीकारना पड़ा कि रावण अपने युग का परम मनीषी और प्रज्ञावान था—दस सिर वाला रावण वस्तुतः दस मस्तिष्क-सी मेधा का प्रतीक है। दुःख के साथ कहना पड़ता है कि मुसलमानों के ग्रंथों में उल्लिखित इस अत्यंत महत्वपूर्ण चरित्र—शैतान—की एक भी आत्मकथित वाणी को मुखर होने नहीं दिया गया। धर्मग्रंथों में एकांगी ढंग से शैतान को दोषारोपित करते हुए सारी वाणी प्रस्तुत की गई; आत्मपक्ष–समर्थन का न्यूनतम अवसर भी शैतान को किसी ग्रंथ में नहीं दिया गया। हमारे नाटक का मूल उद्देश्य है—इस पौराणिक आख्यान में शैतान को आत्मपक्ष रखने का अवकाश देना और एक लेवल–प्लेइंग–फ़ील्ड निर्मित करना, ताकि किसी के साथ अन्याय न हो—यहाँ तक कि शैतान–चरित्र के साथ भी न्याय हो। क्योंकि यदि हम शैतान के साथ न्याय न कर सकें, उसे अपनी बात कहने का अवसर न दें—तो विजयी होगा हमारे भीतर का ही शैतान। अतः आज हम कल्पनात्मक रूप से शैतान को कहने देंगे—उसकी वे अनकही बातें: उसकी आत्मकथा, उसकी अनकही स्मृतियाँ—उसका सब कुछ।
इस कथा के मूल लेखक आरज़ अली मतुब्बर—उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर आरंभ कर रहा/रही हूँ।
दोपहर का वक़्त
वैशाख की तपती दोपहर—आकाश निर्मल। गाँव के बैठकखाने में आरज़ अली विराजमान। बैठकघर की खाट पर लेटे हुए, करवटें बदलते—गरमी में नींद नहीं आ रही। दीवार की एक ओर सुकरात, एपिक्यूरस और गौतम बुद्ध की तस्वीरें; दूसरी ओर डार्विन, इब्न खाल्दून और आइंस्टीन। खाट के पास एक मेज़—उस पर सजी हुई अनेक पुस्तकें: क़ुरआन, बाइबिल, भगवद्गीता, त्रिपिटक साथ-साथ। दूसरे तख्ते पर इम्मैनुअल कांट की क्रिटीक ऑफ़ प्योर रीजन, बर्ट्रैंड रसेल की क्रिटिक ऑफ़ वेस्टर्न फ़िलॉसफ़ी, सोफ़ी की दुनिया, बुख़ारी–मुस्लिम की हदीसें और अन्य पुस्तकें।
आगंतुक
दृश्य – ०१ स्थान: आरज़ अली का कुटीर समय: दोपहर चरित्र: आरज़ अली, आगंतुक घटना: आरज़ अली लेटे हुए हैं—दीवार पर टँगी तस्वीरों को निहार रहे हैं। खिड़की से धूप कमरे में उतर रही है। एक बुज़ुर्ग आलिम-से दिखने वाले आगंतुक का आगमन।
दृश्यारंभ। आरज़ अली ने दूर से देखा—एक आगंतुक द्वार पर आ खड़ा हुआ है। एक संभ्रांत, सौम्य, बुज़ुर्ग पुरुष—सफ़ेद पायजामा, तन पर सफ़ेद जुब्बा, सिर पर (लटवाला) सफ़ेद पगड़ी और वक्ष पर घनी सफ़ेद दाढ़ी; सुदृढ़, तेजस्वी और तीक्ष्ण मुख-मुद्रा। आँखों में जैसे आनंद और बुद्धि की ज्योति—उनकी दृष्टि से प्रतीत हो कि वे अंतरात्मा तक पढ़ रहे हों। ऐसा पुरुष आरज़ अली ने जीवन में कभी न देखा था—न कोई संकोच, न भावावेश—एक धैर्यपूर्ण मुख। मानो अभी-अभी हिमालय की चोटी पर शताब्दियों ध्यान कर उतर आए हों। इस घर में वे पहली बार आए हैं—फिर भी प्रथम आगंतुक की जो स्वाभाविक चंचल दृष्टि इधर-उधर दौड़ जाती है—उसका नामोनिशान नहीं। जैसे किसी चिर-परिचित कक्ष में प्रविष्ट हुए हों। लगता है, यहाँ की पगडंडियाँ, वृक्ष, घर-बार—सब उनकी हथेली की रेखाओं-से पहचाने हुए। मानो वर्षों से वे यहीं रहे हों।
आरज़ अली खाट से उठकर बैठ गए।
आरज़ अली: (आश्चर्य से) अस्सलामु अलैकुम!
आगंतुक: वा-अलैकुमुस्सलाम वा-रहमतुल्लाहि वा-बरकातुहू।
आरज़ अली: जनाब, क्या आप मुझसे ही मिलने आए हैं?
आगंतुक: जी हाँ, आप ही से।
आरज़ अली: (कुर्सी आगे करते हुए) बैठिए जनाब, तशरीफ़ रखिए।
आगंतुक: (कुर्सी पर विराजते हुए—कमरे के फर्नीचर पर बिना दृष्टि डाले, मानो सब पहले से परिचित) अल्हम्दुलिल्लाह। शुक्रिया, जनाब। गरमी में आप काफ़ी पसीने-पसीने हो गए लगते हैं।
आरज़ अली: वह कुछ नहीं। आजकल बिजली रहती नहीं—गरमी में बहुत कष्ट होता है। तो जनाब का परिचय?
आगंतुक: (शांत, सीधे आँखों में देखते हुए) मेरा परिचय जानना चाहते हैं? आप मुझे जानते हैं।
आरज़ अली: लेकिन जनाब, याद नहीं पड़ रहा—आपको कैसे जानूँ?
आगंतुक: मेरा परिचय आप भली-भाँति जानते हैं—और आप ही नहीं, समस्त मनुष्य मुझे जानते हैं—और बख़ूबी जानते हैं।
आरज़ अली: पर मैं तो याद नहीं कर पा रहा। कृपा कर बताएँ—आप कौन हैं?
आगंतुक: याद न रहना स्वाभाविक है। आप मुझे जानते तो हैं, पर पहचाने नहीं—क्योंकि आज तक आप तो क्या, किसी ने मुझे देखा ही नहीं। यद्यपि पृथ्वी के जल–थल–आकाश—सभी में मेरा अविराम गमन है। मैं सभी मनुष्यों से मिलना चाहता हूँ—उनसे प्रेम भी करना चाहता हूँ—पर दुर्भाग्य कि कोई मुझसे मेल-जोल नहीं चाहता।
आरज़ अली: मेल-जोल क्यों न चाहेंगे? आप तो सज्जन ही प्रतीत होते हैं।
आगंतुक: कारण बताता हूँ। उससे पहले कह दूँ—मैं कौन हूँ। विभिन्न सभ्यताओं और भाषाओं में मुझे अलग–अलग नामों से पुकारा जाता है—कहीं “प्रोमीथियस”, कहीं “आज़ाज़ील”, कहीं “अंग्रा मैन्यू”, कहीं “अहरिमन”—कहीं “सेदीम” या “डायबॉल”।
आरज़ अली: मतलब? ये तो सब प्राचीन पौराणिक पात्र हैं। क्या आप कहना चाहते हैं कि आप स्वयं एक पौराणिक चरित्र हैं? आपके माता–पिता, परिजन—कोई नहीं?
आगंतुक: जन्म से मेरा नाम “मकरम” था। प्रारंभिक जीवन में मैं जिन्न था। फिर लाखों वर्षों की इबादत के बाद मैं अल्लाह की फ़रिश्ता–सेना का सरदार बना। कालान्तर में मैं “इब्लीस” हुआ—और प्रचलित नाम “शैतान”।
यह नाम सुनकर आरज़ अली हल्का-सा मूर्खताभाव से मुस्कुराए। (मन में सोचा—यह व्यक्ति अवश्य मज़ाक करने आया है। इब्लीस–शैतान भला मनुष्य–रूप धरकर मेरे पास क्यों आएगा? पर इतना वृद्ध व्यक्ति—दोपहर ढले मज़ाक क्यों करेगा?)
आरज़ अली: (ज़ोर से हँसते हुए) जनाब, दोपहर-दोपहर ऐसे फ़जूल मज़ाक अच्छे नहीं लगते। किसी सहायता की आवश्यकता हो तो कहिए; पर मैं स्वयं निर्धन व्यक्ति हूँ—विशेष मदद मुमकिन नहीं। कुछ बेचने आए हों तो भी ग़लत दर पर आए हैं। साबुन–शैम्पू—मुझे किसी चीज़ की दरकार नहीं। मैं तो बस एक वक़्त खाकर जीवित रहने वाला इंसान हूँ।
आगंतुक: (मुस्कुराकर) कृपया खिन्न न हों। मैं आपसे कुछ माँगने नहीं आया—सिर्फ़ आपका थोड़ा-सा समय चाहता हूँ। मुझे मालूम है—वह समय आपके पास है—इसीलिए आया हूँ। शायद, जिन प्रश्नों के उत्तर आप मन-ही-मन खोजते हैं—उनका कुछ समाधान मिल जाए।
आरज़ अली के मौन–भाव को देखकर आगंतुक मानो उनके मन की सारी बातें पढ़ गया और अविराम बोलने लगा—
आगंतुक: हर समाज में किसी भी वयोवृद्ध को “मुरब्बी” कहा जाता है—और मानव–समाज में मुरब्बी–पुरुष आदर के पात्र होते हैं। मनुष्यों में किसी का मुरब्बी होना सामान्यत: दस–बीस, पचास–साठ—कभी–कभार सौ वर्षों का होता है। पर जब आपके आदि–पिता आदम रचे गए—मैं तब भी काफ़ी सयाना था—और आज भी जीवित हूँ। अतः आयु के नज़रिए से मैं न केवल आपका—बल्कि समस्त मानव–जाति का मुरब्बी हूँ।
आरज़ अली: दोपहर में ये कैसी बातें, जनाब! क्या आप किसी मानसिक व्याधि से पीड़ित हैं? आपकी उलटी–सीधी बातें सुनकर तो ऐसा ही लगता है।
आगंतुक: उलटी–सीधी नहीं कह रहा, जनाब। आपके मन में अनेक प्रश्न हैं—उनकी गाठें खोलने की चेष्टा कर रहा हूँ। सुनिए—फिर विचार कीजिए—शायद कई जटिलताएँ सुलझ जाएँ।
आरज़ अली: आप कहना चाहते हैं—आप मानव–जाति के प्रमुख शत्रु—वही विख्यात इब्लीस हैं? और आज मनुष्य–रूप धर मेरे जैसे एक आदमी से बतकही करने आए हैं?
आगंतुक: जी, वही। तुम्हारी नस–नाड़ी में जिसका वास है [1]—जिसका जीवन अल्लाह का, मृत्यु अल्लाह की—जिसकी जन्नत–जहन्नम—सब कुछ अल्लाह के नाम समर्पित—वही सत्ता—जिससे नबी–रसूल तक भयभीत रहे। इस पृथ्वी की हर चीज़ मेरे कार्य–व्यापार की परिणति है।
आरज़ अली: क्या कह रहे हैं! आऊज़ु बिल्लाहि मिनश्शैतानिर्रजीम!
इब्लीस का तौहीद
दृश्य – ०२
स्थान: आरज़ अली का कुटीर
समय: दोपहर
चरित्र: आरज़ अली, आगंतुक
घटना: आरज़ अली मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं—पर चेहरे पर अविश्वास की छाया। आगंतुक के चेहरे पर आत्मविश्वास और किंचित अहं का आभास।
आरज़ अली: आपकी बातें रोचक लग रही हैं—यद्यपि विश्वास नहीं कर पा रहा। क्या आप चाय या कॉफ़ी कुछ लेंगे?
आगंतुक: जी नहीं जनाब—उनकी आवश्यकता नहीं। मैं तो अपनी बातें कहने आया हूँ।
आरज़ अली: ठीक है—कहिए—मैं एकाग्र होकर सुन रहा हूँ।
आगंतुक: अल्लाह तआला ने पहले फ़रिश्ते बनाए—फिर जिन्न—और अंततः आदम को। ईसाई सृष्टिकर्ता को ‘पिता’ कह कर सम्बोधित करते हैं। अतः एक ही ईश्वर की कृति होने के नाते आदम को मैं अपना भाई भी कह सकता हूँ—हाँ, आयु में कनिष्ठ। आपके समाज—मानव–समाज—में क्या छोटे भाई को सज्दा करने की प्रथा है? शायद नहीं। तो आदम को सज्दा न करके मैंने नीति–विरुद्ध कुछ नहीं किया। फिर भी अल्लाह ने तो स्वयं अपने मुख से फ़रिश्तों को सज्दा का आदेश दिया—मैं तो फ़रिश्ता था ही नहीं। अल्लाह ने कहा [2]—
और जब मैंने फ़रिश्तों से कहा—आदम को सज्दा करो—तो वे सब सज्दा में गिर पड़े—सिवाय इब्लीस के—वह जिन्नों में से था।
आरज़ अली: पर अगले ही वाक्य में अल्लाह ने कहा—तुमने आदेश का उल्लंघन किया। यहाँ अल्लाह ने उपस्थित सभी को संबोधित किया—कई भाषाओं में ऐसा प्रयोग है कि बहुसंख्य को पुकार कर भी सभी का संकेत होता है—इसे “तग़्लीब” कहते हैं।
आगंतुक: ऐसी भाषागत चूक मनुष्यों के लिए चल सकती है—क्योंकि उनकी भाषा–बुद्धि सीमित है; साधारण वार्तालाप में त्रुटि के बाद भी हम भाव समझ लेते हैं। पर अल्लाह के प्रसंग में आप ऐसा कैसे मान लेते हैं? जो ग्रंथ ब्रह्मांड–सृष्टि से बहुत पहले स्वयं अल्लाह ने लिख छोड़ा [3]—दावे के अनुसार जो निरभ्र और विस्तृत है [4] [5]—उसमें ऐसी चूक कैसे? बात तो विपरीत भी हो सकती है—है न? सूत्रों को एक-एक कर मिलाकर देखिए—बहुत सरल था कि वह लिखते—मैंने उपस्थित सभी को सज्दा का आदेश दिया—यह न कहकर कहा—मैंने फ़रिश्तों से कहा। एक शब्द के चयन से आदेश का आशय बदल सकता है।
आरज़ अली: आप छोटे-छोटे शब्द पकड़कर मूल मुद्दे से भागना चाहते हैं। अल्लाह ने आपको भी सज्दा का कहा था—पूरे प्रसंग से यह स्पष्ट है।
आगंतुक: तो फिर उसी आयत में आगे क्यों कहा—वह जिन्नों में से था? सोचिए—अल्लाह ने जन्नत–जहन्नम रची—तो फिर केवल फ़रिश्तों को सज्दा का हुक्म क्यों देते? मार्ग–भ्रष्ट करने वाला कोई न होता तो जहन्नम किससे भरते [6]? और यहाँ आदेश–उल्लंघन कहाँ? यदि निर्देश अस्पष्ट था तो दायित्व तो निर्देश देने वाले का हुआ। मनुष्य के लिए छोटी चूक स्वाभाविक है—अल्लाह के लिए नहीं। फिर भी तर्क के लिए मान लिया कि “बेटों” कहकर आपने सबको केक लेने को कहा—तब भी बेटी को आपत्ति का अधिकार होगा—कि उसके लिए क्यों नहीं कहा? वह न ले तो आप दोष नहीं दे सकते। स्पष्ट है—वाक्य-विन्यास ही अशुद्ध था; उचित था—बेटे–बेटी सभी कहना।
आरज़ अली: आप एक शब्द पर शब्द–क्रीड़ा कर रहे हैं—चालाकी कर रहे हैं।
आगंतुक: चालाकी में तो अल्लाह स्वयं अकबरुल–माकिरीन हैं [7]—क़ुरआन कहता है—उनके साथ चालाकी चलना संभव नहीं। आप उनकी सूझ–बूझ पकड़ नहीं पाए। आदेश यह था—फ़रिश्ते सज्दा करें—वह लागू हुआ—अल्लाह की बात असत्य न हुई। और साथ ही—मैं जिन्न होने के कारण सज्दा से अलग रहा—तो अल्लाह की महायोजना भी फलीभूत हुई। सृष्टि–पूर्व ही उन्होंने हर वस्तु का तक़दीर लिख रखा है [8]—मेरा तक़दीर भी लिखा हुआ है [9]—मेरी जन्नत–जहन्नम भी पूर्वनिर्धारित। जो उन्होंने लिखा—वही हुआ—और उनका यह आदेश भी पूर्ण हुआ। उन्होंने मेरा तक़दीर जाने बिना “सिर्फ़ फ़रिश्तों” नहीं कहा—मेरा भाग्य तो जन्म से बहुत पहले ही निश्चित हो चुका था [10].
आरज़ अली: ये सब आपकी शैतानी दलीलें हैं—मुझे ईमान से गिराने का उपाय। मेरी बात यह है—आप अहंकारी हैं। जन्म से कोई छोटा–बड़ा नहीं होता—अल्लाह ने कहा है—उसके यहाँ तक़्वा का महत्त्व है। उम्र, जन्म–स्थान से क्या होता है? हम भी कहते आए हैं—“जन्म हो यथा–तथा, कर्म हो उत्तम।” तो आदम मिट्टी के बने हों या आपसे बाद में जन्मे—इससे आपको सज्दा न करने का अधिकार नहीं मिलता।
आगंतुक: यदि जन्म से कोई बड़ा–छोटा न हो—और कर्म ही अल्लाह को प्रिय हो—तो निस्संदेह मैं आदम से कई गुना श्रेष्ठ था। मेरी इबादत फ़रिश्तों से भी बढ़कर—इबादत और अल्लाह–प्रेम में मैं फ़रिश्तों का सरदार था।
आरज़ अली: पर अल्लाह ने तो मनुष्य को अपना खलीफ़ा चुना—अल्लाह के खलीफ़ा को सज्दा करना आपका कर्तव्य था।
आगंतुक: चुना था—पर आदम के किसी कर्म–विशेष के आधार पर? या मात्र अपने इरादे से? यदि जन्म से श्रेष्ठता निर्धारित नहीं—तो फिर आदम जन्म से पहले ही खलीफ़ा कैसे ठहराए गए [11]—बिना किसी कर्म के?
आरज़ अली: आप बार-बार भूल रहे हैं—अल्लाह ने आरंभ में परीक्षा ली—हर वस्तु के नाम पूछे—आदम के सिवा कोई सफल न हो सका।
आगंतुक: यदि आप यह जानते हैं, तो आप निश्चय ही यह भी जानते होंगे कि अल्लाह ने आदम को सृजित करने के बाद प्रत्येक वस्तु का नाम सिखाया। इसके बाद सबको बुलाकर उन वस्तुओं के नाम पूछे। स्वाभाविक ही, आदम के सिवा कोई भी उन नामों को नहीं बता सका। क्यों बताता—अल्लाह ने तो केवल आदम को ही शिक्षा दी थी [12]। इसमें आदम का कौशल कहाँ? मान लीजिए आप एक विद्यालय के शिक्षक हैं, जहाँ एक छात्र को निजी ट्यूशन में सब कुछ सिखा देते हैं। अन्य छात्र न तो निजी ट्यूशन लेते हैं, न ही आप उन्हें कक्षा में वह पढ़ाते हैं। अब यदि वह छात्र परीक्षा में प्रथम आ जाए, तो उसमें उसका निजी कौशल कितना? उस समय फ़रिश्तों का उत्तर क्या था, याद है? फ़रिश्तों ने कहा था,
आपने हमें जो सिखाया उसके सिवा हमारे पास कोई ज्ञान नहीं है।
आरज़ अली: अल्लाह ने तो विशेष उद्देश्य से आदम को विशेष सामर्थ्य के साथ पैदा किया था। अल्लाह पाक ने कहा है कि उन्होंने जिन्न जाति और मानव जाति को केवल अपनी इबादत के लिए पैदा किया है [13]।
आगंतुक: वह विशेष उद्देश्य जो इबादत है—क्या आप निश्चित रूप से जानते हैं? फ़रिश्ते ही तो पर्याप्त थे अल्लाह की इबादत के लिए। अल्लाह चाहते तो करोड़ों नए फ़रिश्ते बनाकर उनसे उपासना करवा सकते थे। फिर अलग से मनुष्य की रचना क्यों? और मनुष्य को “अशरफ़ुल मख़लूक़ात” घोषित क्यों किया गया? अलग से मनुष्य की सृष्टि का कारण यही है—अल्लाह नहीं चाहते थे कि कुछ बुद्धिहीन यंत्र, रोबोट की तरह, बस आदेश का पालन करें। बल्कि उन्होंने चाहा कि यह विशेष सृष्टि अपने ज्ञान का उपयोग कर तर्कपूर्ण निर्णय लेना सीखे। वरना आदम को सृजित करने के बाद उन्हें शिक्षा देने की आवश्यकता क्यों पड़ी [14] [15]?
आरज़ अली: आप कहना चाहते हैं कि अल्लाह ने मनुष्य को अंधविश्वास में ग़ायब पर ईमान लाकर इबादत करने के लिए नहीं, बल्कि सीमित मानवीय ज्ञान का प्रयोग कर तर्कपूर्ण निर्णय लेने के लिए पैदा किया? लेकिन अल्लाह ने तो कहा है कि उन्होंने जिन्न और मनुष्य को केवल अपनी इबादत के लिए पैदा किया है।
आगंतुक: यह धरती मनुष्य के लिए एक परीक्षा-केंद्र है—इस वाक्य का गूढ़ अर्थ आपने आज तक नहीं समझा, जनाब। कई बार पिता अपने पुत्र को कुछ कह देता है, जबकि उसके मन में चाहता है कि पुत्र वह काम न करे। जैसे मान लीजिए, अल्लाह ने एक पिता को स्वप्न में आदेश दिया कि अपनी सबसे प्रिय वस्तु—अपने पुत्र—की हत्या करो। लेकिन अल्लाह का वास्तविक इरादा यह नहीं था कि वह निर्दोष पुत्र की हत्या करे; यह केवल परीक्षा के लिए आदेश था। बताइए, यह घटना आपको जानी-पहचानी लगती है न?
आरज़ अली: हाँ, यह तो नबी इब्राहीम की कहानी है।
आगंतुक: यानी अल्लाह कभी-कभी ऐसे काम का आदेश दे सकते हैं, जिसे वास्तव में घटित होते वे नहीं चाहते। केवल परीक्षा के लिए ऐसा आदेश देते हैं, सही? जो पुत्र पिता से सच्चा प्रेम करता है, वह पिता के हृदय की छिपी इच्छा समझ लेता है। और जो केवल पिता को प्रसन्न कर उपहार पाना चाहता है, वह अंधाधुंध आदेश का पालन करता है—पिता के मन की खबर नहीं लेता। आदम—अर्थात मनुष्य—की सृष्टि का वास्तविक अर्थ यही है—अल्लाह को अंध पालन करने वालों से करोड़ों वर्षों तक उपासना प्राप्त कर संतोष नहीं हुआ। उन्होंने चाहा कि उनके आदेश का पालन मनुष्य अपने ज्ञान और तर्क से करे। यदि यही है, तो क्या मैंने अल्लाह के आदेश के विपरीत अपनी बुद्धि का प्रयोग कर अपराध किया, या उनकी उस सुप्त इच्छा को पूरा किया, जिसमें वे चाहते थे कि उनका बंदा अंध पालन न करे, बल्कि तर्क से निर्णय ले?
आरज़ अली: बहुत से सूफ़ीवादी इस तरह की बातें कहते हैं। लेकिन दिन के अंत में हमें क़ुरआन और हदीस की ओर ही लौटना होगा, क्योंकि अल्लाह और उनके रसूल ने ऐसा ही निर्देश दिया है, और उसी तरह चलने से हमें जन्नत मिलेगी। इतनी जटिल दलीलें किसी सच्चे मोमिन के लिए कोई मायने नहीं रखतीं। इस्लाम का मूल आधार है ईमान।
आगंतुक: मायने रखे या न रखे, मैं आपसे मानने को नहीं कह रहा—सिर्फ सुनने को कह रहा हूँ। सुनना का मतलब मानना नहीं है। बताइए—यदि अल्लाह का उद्देश्य केवल मनुष्य से इबादत पाना है, तो इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसकी सबसे अधिक आवश्यकता है?
आरज़ अली: क्या आप यह कहना चाहते हैं कि आप अल्लाह को इबादत पाने में मदद करते हैं? लेकिन अल्लाह ने तो कहा है कि वह किसी के मोहताज नहीं।
आगंतुक: अवश्य मदद करता हूँ—पर उस बात पर बाद में आऊँगा। यदि वह मोहताज न होते, तो इबादत पाने की आकांक्षा ही क्यों रखते? कोई भी आकांक्षा स्वयं में मोहताजी का प्रमाण है। जैसे आपको धन, मकान, गाड़ी पाने की आकांक्षा है—तो आप वस्तुतः विभिन्न कारणों पर निर्भर हैं। जो पूर्णतः निरपेक्ष हो, उसकी कोई इच्छा नहीं होती।
आरज़ अली: हा हा हा! अब आप कह रहे हैं कि अल्लाह ने क़ुरआन में हमसे झूठ कहा? यानी वे हमारी प्रार्थना की आकांक्षा रखते हैं, मतलब वे हमारे मोहताज हैं? आपने तो उनके आदेश का उल्लंघन किया था—अब अपनी गलती छिपाने के लिए अल्लाह को झूठा बना रहे हैं?
आगंतुक: अल्लाह हमेशा सत्य कहते हैं या कभी-कभी आवश्यकता पड़ने पर असत्य भी कहते हैं—इस पर बाद में आऊँगा। हाँ, अल्लाह के आदेश की अवहेलना के विषय में आप सही कह रहे हैं। आदम को सज्दा न करना अल्लाह तआला के मौखिक आदेश की अवज्ञा थी। लेकिन आदेश देने वाले वही हैं, जिन्होंने उसे तोड़ने की शक्ति भी प्रदान की। इस जगत में किसी के पास ऐसी शक्ति नहीं, जिससे वह अल्लाह की इच्छाशक्ति को परास्त कर अपनी इच्छा को प्रभावी बना सके। क़ुरआन में भी कहा गया है—”और तुम इच्छा नहीं कर सकते, जब तक सृष्टिकर्ता रब अल्लाह इच्छा न करें” [16]।
आरज़ अली: आप कहना चाहते हैं कि आपके पास किसी भी इच्छा की स्वतंत्रता नहीं थी?
आगंतुक: मैं यह नहीं कह रहा हूँ। अल्लाह ने स्वयं कहा है—कोई भी सृष्टि कोई इच्छा कर ही नहीं सकती, जब तक अल्लाह उसके लिए वह इच्छा न करें। इसका क्या अर्थ है?
आरज़ अली: ये तो काफ़िरों की बनाई बातें हैं। इसका मतलब यह हुआ कि अल्लाह की इच्छा के बिना बंदे की अपनी कोई इच्छा नहीं? लेकिन इसके तो और भी बहुत से अर्थ हो सकते हैं।
आगंतुक: हो सकते हैं। लेकिन क़ुरआन में जो स्पष्ट कहा गया है, उसे आप कैसे नकारेंगे? मैं अपने कथन के प्रमाण अनेक तरीक़ों से दे सकता हूँ। धैर्य रखें, क्योंकि अल्लाह धैर्यवानों को पसंद करते हैं। अल्लाह जानते थे कि मैं उनके आदेश पर आदम को सज्दा नहीं करूँगा। वे यह भी जानते थे कि आदम उनके निषेध का पालन कर निषिद्ध फल खाने से नहीं बचेंगे। वरना जन्नत के बाग़ में ऐसा निषिद्ध फल उनके सामने रखने की आवश्यकता ही क्या थी? बच्चों के सामने चॉकलेट रख दीजिए—वे उसे खाना चाहेंगे ही, चाहे आप सौ बार मना करें। आपकी ज़िम्मेदारी है कि चॉकलेट को ऐसी जगह रखें, जहाँ बच्चे उसका पहुँच न बना सकें।
आरज़ अली: लेकिन आदम को जो आदेश दिया गया था, उसका पालन तो करना ही होगा।
आगंतुक: क्या आपके घर में धारदार चाकू है? यदि घर में बच्चे खेल रहे हों, तो क्या आप उन्हें मेज़ पर रखकर सो जाएँगे? आप नहीं समझेंगे कि चाहे जितना मना करें, बच्चों का आकर्षण निषिद्ध वस्तु की ओर ही रहेगा? क्या यह आपकी ज़िम्मेदारी नहीं है कि चाकू को ऐसी जगह रखें, जहाँ बच्चे उसे छू न सकें?
आरज़ अली: लेकिन आदम तो बच्चे नहीं थे। वे बुद्धिमान मनुष्य थे। फिर उन्होंने यह कार्य क्यों किया?
आगंतुक: जिस प्रकार वयस्क की बुद्धि की तुलना में बच्चे की बुद्धि कम होती है, उसी प्रकार अल्लाह की बुद्धि की तुलना में आदम की बुद्धि उससे भी कम थी। अल्लाह भलीभाँति जानते थे कि आदम वह फल खाएँगे। निषिद्ध वस्तु के प्रति मनुष्य की रुचि अधिक होती है। जन्नत में ऐसे वृक्ष को रखना कोई अर्थ नहीं रखता—जब तक कि अल्लाह की कोई महान योजना न रही हो। वे यह भी जानते थे कि आदम की संतानों में कोई उनके आदेश मानेगा, कोई नहीं मानेगा। यदि ऐसा न जानते, तो आदम को पैदा करने से पहले—विशेषकर मुझे शैतान बनाने से पूर्व—उन्होंने जन्नत और जहन्नम क्यों और किसलिए निर्मित किए?
आरज़ अली: अल्लाह पाक ने जो आपको आदेश दिया, उसे अक्षरशः पालन करना ही तो आपका धर्म था। तर्क से विचार किए बिना, अपने मस्तिष्क का प्रयोग किए बिना, आपको अल्लाह के आदेश का पालन करना चाहिए था।
आगंतुक: तौहीद किसे कहते हैं, आप जानते हैं? इस धरती पर अल्लाह के लाखों नबी और रसूल भेजने का मुख्य उद्देश्य क्या था, आप जानते हैं? वह है तौहीद का प्रचार। तौहीद का अर्थ है—समस्त ब्रह्मांड पर अल्लाह की एकता को दिल से स्वीकार करना, और सज्दा पाने के एकमात्र अधिकारी के रूप में उन्हीं के सामने आत्मसमर्पण करना। आपकी ही जाति में एक प्रसिद्ध सूफ़ी, अहमद ग़ज़ाली (आपके इमाम ग़ज़ाली नहीं) ने क्या कहा है, आपने पढ़ा? आप लोग तो उन्हें काफ़िर कहते हैं, जबकि वे अल्लाह के अस्तित्व को नकारते नहीं। मैंने लाखों वर्षों तक अल्लाह को सज्दा किया है, आज भी करता हूँ। ब्रह्मांड में ऐसा कोई स्थान नहीं बचा जहाँ मैंने अल्लाह के लिए सज्दा न किया हो। मैं जीवित रहते अल्लाह के सिवा किसी को भी सज्दा नहीं करूँगा—यह अल्लाह भलीभाँति जानते हैं। न किसी मूर्ति, न किसी देवता, न किसी शक्ति, न किसी इंसान, न किसी जिन्न, न किसी फ़रिश्ते—किसी के सामने यह सिर कभी नहीं झुकेगा, सिवा अल्लाह के। यदि मेरे सामने सम्पूर्ण ब्रह्मांड की वस्तुएँ रख दी जाएँ, तो भी मैं अपनी तौहीद से एक रत्ती भी नहीं हटूँगा—इसे अल्लाह से बेहतर और कौन जान सकता है! तौहीद के प्रमाण में अपनी सम्पूर्ण सत्ता मुझ जैसा और कौन लुटा सका? अपनी इज़्ज़त, मान, पदवी—सब कुछ लुटाकर, अनंतकाल जहन्नम की आग में जलने की बात जानकर भी, तौहीद के लिए मुझ जैसा आत्मोत्सर्ग किसने किया?
आरज़ अली: तौहीद से आपका अभिप्राय क्या है? अल्लाह के आदेश का पालन ही तो तौहीद है।
आगंतुक: तौहीद का सही अर्थ “एकत्ववाद” हो सकता है। किंतु “एकत्ववाद” शब्द से भी तौहीद की पूर्ण व्याख्या नहीं होती। आप कह सकते हैं—सज्दा पाने के एकमात्र स्वामी के रूप में अल्लाह को मानना। यह अधिकार केवल अल्लाह का है। ला-इलाहा इल्लल्लाह—केवल यही वाक्य अल्लाह द्वारा भेजे गए सभी धर्मों का मूल मंत्र है। इसका अर्थ है—अल्लाह के सिवा कोई उपास्य नहीं। अल्लाह के सिवा किसी के आगे सिर मत झुकाओ। केवल उसकी ही उपासना करो—क्योंकि सज्दा का एकमात्र अधिकारी अल्लाह है।
आरज़ अली: लेकिन अल्लाह ने तो आदम को सज्दा करने को कहा था सम्मान के लिए, इबादत के लिए नहीं।
आगंतुक: विभिन्न देशों में मृतकों को सम्मान देने के लिए जो स्मारक बनते हैं, मूर्तियाँ बनाई जाती हैं—वे उनकी उपासना के लिए नहीं, सम्मान के लिए बनाई जाती हैं। क्या वे इस्लाम में हलाल हैं? मान लीजिए, आपके देश में शेख मुजीब की मूर्ति तोड़ने के लिए इस्लामी दल आंदोलन कर रहे थे—क्या वह मूर्ति उपासना के लिए बनी थी या सम्मान के लिए? यदि सम्मान के लिए थी, तो फिर उसे तोड़ने की मांग क्यों? इस्लामी आलिम और अन्य दल कहते हैं—सम्मान के लिए भी मूर्ति नहीं बन सकती। आपके देश में लोग पीरों को सज्दा करते हैं—वे कहते हैं कि यह सज्दा उपासना के लिए नहीं, बल्कि सम्मान के लिए है। सह़ीह अक़ीदा वाले लोग कहते हैं—सम्मान के लिए भी सज्दा नहीं हो सकता। आदम की घटना से पहले लाखों वर्षों तक मैंने जो सज्दे किए, वे क्या थे? फ़रिश्तों के सज्दे क्या थे? केवल सम्मान? और सम्मान के लिए तो सलाम देना ही काफ़ी है—सज्दा क्यों, जो केवल अल्लाह का हक़ है? अल्लाह ने स्वयं कहा—मुझे छोड़कर किसी को सज्दा मत करो। क़ुरआन में भी कहा गया—”न सूरज को सज्दा करो, न चाँद को। और सज्दा करो अल्लाह को, जिसने इनको पैदा किया—यदि तुम केवल उसी की इबादत करते हो” [17]। अल्लाह के स्थान पर किसी को बिठाने से उसका गौरव बढ़ता है या नहीं—यह तो वही जानते हैं। फिर भी आदम को सज्दा करने का फ़रिश्तों को आदेश देना—यह उनके दिल की बात नहीं थी। अल्लाह ने दिल में एक चाही, और मुँह से कुछ और कहा।
आरज़ अली: जो आयतें आप कह रहे हैं, वे सच हैं—पर आप मुझे गुमराह करने के लिए उनका ग़लत अर्थ निकाल रहे हैं। मनगढ़ंत अर्थ निकालने से क्या होगा? अपनी गलती छिपाने के लिए हर अपराधी ऐसा कर सकता है। आप तो नास्तिकों की तरह ही बातें कर रहे हैं।
आगंतुक: मैं नास्तिकों की तरह बात कर रहा हूँ? इस जगत-संसार में मुझसे बड़ा आस्तिक और कौन है, जिसने ब्रह्मांड के हर स्थान पर अल्लाह के लिए सज्दा किया हो? अल्लाह द्वारा भेजे गए फ़रिश्ते और नबी-रसूल सभी अल्लाह के चुने हुए थे। कोई भी अपने प्रयास या योग्यता से इबादत कर फ़रिश्ता नहीं बना, न ही नबी-रसूल। मैं अकेला हूँ जिसने अल्लाह की कृपा से, अपनी योग्यता और अनंतकाल की उपासना के बल पर फ़रिश्तों का सरदार बनने का दर्जा पाया। जिन्न होकर जन्म लेना और अनंतकाल की उपासना के बल पर फ़रिश्तों का सरदार बनना—क्या आप इसे हल्के में लेंगे? तो फिर मुझसे बड़ा आस्तिक ब्रह्मांड में और कौन है? यदि “नास्तिक” शब्द आप तिरस्कार में प्रयोग कर रहे हैं, तो याद रखें—इस दृष्टि से मैं अल्लाह से भी आगे हूँ। क्योंकि परिभाषा के अनुसार, अल्लाह पाक स्वयं एक नास्तिक हैं—जो अपने किसी सृष्टिकर्ता पर विश्वास नहीं करते।
आरज़ अली: नऊज़ुबिल्लाह! यह आप क्या कह रहे हैं!
आगंतुक: मैंने कहाँ ग़लत कहा, कृपया स्पष्ट करें। क्या अल्लाह नास्तिक नहीं हैं? और मैं कब, कहाँ नास्तिक हुआ—क्या आप बता सकते हैं?
आरज़ अली: असल में आप घमंडी हैं। अल्लाह ने कहा है—अल्लाह घमंड करने वालों को पसंद नहीं करते। आपके घमंड के कारण ही आज आपकी यह दुर्दशा है।
आगंतुक: यदि आत्मसम्मान को आप घमंड मानते हैं, तो मेरे पास कहने को कुछ नहीं। मेरे लिए जो आत्मसम्मान है, आपके लिए वही घमंड है। मान लीजिए, आप किसी जगह नौकरी करते हैं। दिन-प्रतिदिन, महीने-दर-महीने, वर्षों तक अपार मेहनत करके आपने उस कार्यालय में अपनी स्थिति बनाई। पसीना बहाकर अपनी योग्यता सिद्ध की। और मालिक अचानक एक दिन अपने किसी रिश्तेदार को बिना किसी योग्यता के आपके ऊपर के पद पर बैठा दे और आपसे कहे कि उसे सज्दा करें—क्या आपके आत्मसम्मान को इसमें चोट नहीं पहुँचेगी?
आरज़ अली: चोट तो पहुँचेगी। लेकिन चूँकि अल्लाह ही उस कार्यालय के मालिक हैं, इसलिए उनका आदेश मानना ही होगा।
आगंतुक: जिसकी मैं उपासना करता हूँ, वह न्याय का मालिक है। मेरा अंतःकरण वह जानता है। यदि वह न्याय नहीं कर सकता, तो वह मेरी उपासना पाने का अधिकारी भी नहीं रहेगा।
(गीत आरंभ होगा)
आशिक़ बिन फ़र्क़ की बात कौन पूछे,
ख़लीफ़ा से सब ने रसूल कहा।
माशूक़ से जो हो आशिक़ी,
खुल जाए उसकी दिव्य आँखें,
नफ़्स अल्लाह, नफ़्स नबी,
देखेगा सहज ही।
बंदे की तक़दीर
दृश्य-03
स्थान: आरज़ अली की कुटिया
समय: दोपहर
चरित्र: आरज़ अली, आगंतुक
घटना: आरज़ अली के चेहरे पर अब आत्मविश्वास है। आगंतुक हल्की मुस्कान के साथ बातें कर रहे हैं।
आरज़ अली: जब अल्लाह पाक ने आपको आदम को सज्दा करने का आदेश दिया था, उस समय अल्लाह के सिवा किसी और को सज्दा करना शिर्क नहीं माना जाता था। वह तो बहुत पहले की बात है।
आगंतुक: आप कहना चाहते हैं कि अल्लाह पाक पहले स्वयं शिर्क का आदेश देते थे, और समय के साथ उनके विचार बदल गए, फिर उन्होंने उसी शिर्क को सबसे बड़ा अपराध ठहरा दिया? और उसी शिर्क के लिए युगों-युगों में उन्होंने करोड़ों लोगों का संहार किया—स्त्री, बच्चे, वृद्ध, विकलांग सभी? नूह नबी की कहानी याद है?
आरज़ अली: विषय न बदलें। मैं यह नहीं कह रहा। मेरा कहना है कि अल्लाह का आदेश मानना ही बंदे का एकमात्र कार्य है। आप उसमें अपने घमंड—या आपकी भाषा में आत्मसम्मान—को अधिक महत्व दे रहे थे।
आगंतुक: क्या आपने आख़िरी नबी की हदीसें पढ़ी हैं? उनमें कुछ हदीसें हैं जो आदम और मूसा के विवाद के बारे में हैं [18]। उनमें वर्णित है कि अल्लाह के रसूल मेराज में जाकर आदम और मूसा का विवाद सुनकर आए। वहाँ मूसा, आदम को मानव जीवन के दुख-दर्द और परीक्षा के लिए दोषी ठहरा रहे थे। आदम ने कहा—क्या आप मुझे उस दोष के लिए आरोपित करेंगे, जिसे अल्लाह ने मेरे जन्म से चालीस वर्ष पहले लिख दिया था? उस विवाद में, आख़िरी नबी के गवाह के अनुसार, आदम विजयी हुए। इसका अर्थ है—जिस अपराध में आदम को दोषी ठहराया गया, उसमें वे वस्तुतः दोषी नहीं थे, क्योंकि वह पहले ही अल्लाह द्वारा तय था। अब आप बताइए—यदि आदम को उस कार्य के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि अल्लाह ने उसे पहले ही लिख दिया था—तो फिर मैंने जो सज्दा नहीं किया, क्या वह अल्लाह ने पहले से नहीं लिखा था? आदम के लिए यह स्वीकार्य, और मेरे लिए अनंतकाल जहन्नम?
आरज़ अली: लेकिन अल्लाह पाक ने तो सिर्फ़ जानने के कारण लिख दिया था। उन्होंने आपको करने के लिए मजबूर नहीं किया। उन्होंने आपको स्वतंत्रता दी थी—अपनी इच्छा से कार्य करने की। आपने उस स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया।
आगंतुक: नहीं, लगता है आपने हदीस का गहन अध्ययन नहीं किया। एक सहीह हदीस में आख़िरी नबी ने कहा—जब महान अल्लाह किसी बंदे को जन्नत के लिए पैदा करते हैं, तो उससे जन्नत वालों के काम कराते हैं। अंततः वह जन्नत वालों के काम करते हुए मरता है, और अल्लाह उसे जन्नत में दाख़िल करते हैं। और जब वह किसी बंदे को जहन्नम के लिए पैदा करते हैं, तो उससे जहन्नम वालों के काम कराते हैं, और वह उन्हीं कामों को करते हुए मरता है, और उसे जहन्नम में डाल दिया जाता है [19]। अगर अल्लाह मुझसे कुछ कराएँ, तो मेरे जैसे मामूली सृजन की क्या ताक़त है कि मैं उसे न करूँ?
आरज़ अली: आप हदीस का ग़लत अर्थ निकाल रहे हैं। अल्लाह कभी किसी से ज़बरदस्ती कुछ नहीं कराते। क़ुरआन से दिखाइए कि अल्लाह ने आपसे यह ग़लत काम करवाया।
आगंतुक: क़ुरआन में भी यही बात कई स्थानों पर आई है। क्या आपने नहीं पढ़ा—”धरती और तुम्हारी जान पर जो भी आपदा आती है, वह तो हमने उसके पैदा होने से पहले ही किताब में लिख दी है” [20]? क्या यह विपत्ति अल्लाह ने पहले से मेरे लिए तय नहीं कर रखी थी? अल्लाह ने यह भी कहा—”अल्लाह जिसे सीधी राह पर चलाता है, वही सीधी राह पाता है, और जिसे वह भटका देता है, उसके लिए तुम कभी कोई मार्गदर्शक और सहायक नहीं पाओगे” [21]। और एक अन्य आयत में कहा गया [22]—
यदि किसी को उसका बुरा काम सुशोभित कर दिखाया जाए, फिर वह उसे अच्छा समझे—तो यह इसलिए है कि अल्लाह जिसे चाहें गुमराह करते हैं और जिसे चाहें हिदायत देते हैं; अतः उनके लिए अफ़सोस करते-करते स्वयं को नष्ट मत करो।
बताइए, यदि मुझे बुरा काम अल्लाह इस तरह सुशोभित कर दिखाएँ कि उनका इरादा मुझे गुमराह करने का हो, तो मेरे लिए वह बुरा काम अच्छा ही प्रतीत होगा, है ना? तब तो मैं उसे उत्तम कार्य समझकर करूँगा, क्योंकि अल्लाह ने ही उसे चाहा है। यदि अल्लाह मुझे गुमराह करने की इच्छा न रखते, तो मेरे जैसे तुच्छ सृजन के लिए कुपथ पर चल पड़ना संभव होता? उस समय तो शैतान नाम का कोई था ही नहीं। तो फिर मुझे गुमराह किसने किया, कभी सोचा है?
अल्लाह ने और भी कहा है—”और तुम चाह ही नहीं सकते, जब तक कि समस्त सृष्टि के पालनहार अल्लाह न चाहें” [23]। तो बताइए, अल्लाह की इच्छा के बिना मेरे मन में कोई इच्छा आ सकती है क्या? उस दिन मैंने अल्लाह से एक बात कही थी—वह आपको क़ुरआन में भी मिलेगी। मैंने कहा था, “आपने मुझे गुमराह किया है, अतः मैं अवश्य ही उनके लिए आपके सीधे रास्ते पर घात लगाकर बैठूँगा” [24]। क़ुरआन में भी अल्लाह ने स्वीकार किया कि मेरी यह बात सत्य थी। अल्लाह ने ही मुझे गुमराह किया था। अन्यथा, क्या अल्लाह क़ुरआन में अपने ऊपर कोई झूठा आरोप दर्ज करते?
आरज़ अली: इन आयतों और हदीसों का निश्चय ही कोई भिन्न अर्थ होगा। आप ग़लत व्याख्या देकर मुझे मूर्ख नहीं बना सकते। आप अपनी चिर-परिचित शैतानी मेरे साथ भी कर रहे हैं। मुझे गुमराह करने की आपकी यह इच्छा कभी पूरी नहीं होगी।
आगंतुक: यह भी वस्तुतः आपके हाथ में नहीं, बल्कि अल्लाह के हाथ में है। आपको मेरी बात मानने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन आप समीक्षा कर सकते हैं। मुझे पता है, मेरी बात आपके लिए कोई महत्व नहीं रखेगी। यदि केवल एकपक्षीय बात सुनकर आप मुझे सूली पर चढ़ा दें, तो यह इंसाफ़ नहीं हो सकता। आप केवल मेरे बारे में अपवाद और अपशब्द सुनकर ही निर्णय लेते आए हैं, और हज़ार वर्षों से मुझे गाली देते आए हैं। यदि यही आपका इंसाफ़ है—तो असली शैतान कौन है?
आरज़ अली: अच्छा, ठीक है, आप अपनी बात कहिए। मैं सुन रहा हूँ। लेकिन पहले से कह देता हूँ—मैं अल्लाह और नबी-रसूल के मार्ग पर ही रहूँगा। केवल अल्लाह का मार्ग ही मुक्ति और जन्नत का मार्ग है।
आगंतुक: जन्नत के लोभ में आप न्याय से हट जाएँगे, जनाब? यदि पहले ही निर्णय तय है, तो मेरे आत्मपक्ष का कोई अर्थ नहीं। साढ़े चौदह सौ वर्षों से हर हज में हज़ारों लोग मिलकर मुझे पत्थर मारते आए हैं, जबकि मुझे कोई आत्मपक्ष का अवसर नहीं दिया गया। और फिर, जिसके पक्ष में सर्वशक्तिमान अल्लाह हैं, उनके अनगिनत फ़रिश्तों की फ़ौज, उनके हज़ारों नबी-रसूल, लाखों वली-औलिया—और दूसरी ओर मैं अकेला। क्या आप मेरा पक्ष सुने बिना निर्णय देंगे? इसके अलावा, अल्लाह ने इतनी सारी आसमानी किताबें भेजकर आपके सामने मेरे बारे में अपवाद फैलाया है—आपने मेरी कितनी किताबें पढ़ी हैं? आधुनिक लोकतांत्रिक विश्व में कई तानाशाह मीडिया का उपयोग करके सत्ता को मज़बूत करते हैं—क्या आप जानते नहीं?
आरज़ अली: आप कहना चाहते हैं कि अल्लाह ने इतनी सारी आसमानी किताबें भेजकर वस्तुतः मीडिया-कूप के ज़रिये आपके बारे में झूठ लिखा?
आगंतुक: कौन-सी बात सत्य है और कौन-सी असत्य—यह मुख्य विषय नहीं है। मुख्य बात है—आप किसकी आँखों से देख रहे हैं। मानव इतिहास विजेताओं ने लिखा है। उस इतिहास में आप हमेशा विजेता नेताओं की प्रशंसा और पराजित नेताओं की निंदा पाएँगे। हज़ारों वर्षों से आसमानी किताबों में आपने अल्लाह की आँखों से देखा है—अब एक बार मेरी आँखों से भी देखिए।
आरज़ अली: अच्छा, ठीक है, आप अपनी बात कहिए।
आगंतुक: कह रहा हूँ। लेकिन याद रखें, आपके साथ यह चर्चा ही मेरा एकमात्र आत्मपक्ष है। इसके विरोध में विपक्ष भड़क सकता है और मेरे आत्मपक्ष को भी बंद करने का प्रबंध कर सकता है। क्या आप वादा करेंगे कि मेरी यह बातें आप पृथ्वी के लोगों तक पहुँचा देंगे?
आरज़ अली: मैं वादा नहीं कर सकता, यहाँ तक कि मैं यह भी नहीं कह सकता कि यदि मैं यह बातें सबको बताऊँ तो कोई विश्वास करेगा। लेकिन मैं आपकी बात सुनने के लिए इच्छुक हूँ। मेरी गहरी इच्छा है सब सुनने की।
आगंतुक: अच्छा। अल्लाह पाक ने सात जहन्नुम बनाए हैं, सभी में इंसानों के रहने के लिए। क्या वह चाहते हैं कि मैं अपना गुमराह करने का काम बंद कर दूँ और उनकी जहन्नुमें खाली रहें? यह वह न चाहते, न चाह सकते। यदि चाहें तो उनकी जहन्नुम बनाने की सार्थकता समाप्त हो जाएगी। अल्लाह की इच्छा है कि कुछ लोग जहन्नुमी हों। और उन्होंने मुझे चालाकी से यह समझाया कि मैं इस इच्छा की पूर्ति में मदद करूँ। यह काम मेरे लिए फ़र्ज़ है या न करना हराम? अल्लाह चाहते हैं कि मैं इंसानों को धोखा दूँ, गुमराह करूँ। क्योंकि हदीस में आख़िरी नबी ने कहा—”यदि तुम गुनाह न करते, तो अल्लाह तुम्हें हटा कर ऐसी क़ौम पैदा करते जो गुनाह करती और अल्लाह से माफ़ी माँगती, और अल्लाह उन्हें माफ़ कर देता” [25]। अब बताइए, मेरे अलावा और कौन इंसानों से गुनाह कराएगा? और यदि गुनाह न हो, तो क्या अल्लाह इंसान नामक इस अशरफ़ुल-मख़लूकात को हटा कर दूसरी क़ौम पैदा न करते? तो क्या इंसान जाति का अस्तित्व मेरे अनुग्रह से नहीं है? क्या मैं वास्तव में इंसान को विनाश से नहीं बचा रहा, अल्लाह के काम में मदद नहीं कर रहा?
आरज़ अली: आप लगातार हदीस की ग़लत व्याख्या कर रहे हैं। अल्लाह के नबी ने जो समझाया और आप जो कह रहे हैं, उसमें बहुत अंतर है!
आगंतुक: ग़लत या सही व्याख्या—यह भी इस पर निर्भर करता है कि आप किसकी आँखों से देख रहे हैं—अंधविश्वासी की या तर्कशील की। मैं अल्लाह की इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं कर सकता, कोई नहीं कर सकता। बहुत कोशिश के बावजूद मैं किसी नबी, वली या दरवेश को जहन्नुमी नहीं बना सका, क्योंकि यह अल्लाह की इच्छा नहीं थी। इसी तरह हज़रत इब्राहीम, हज़रत मूसा और आख़िरी नबी (स.) भी अपनी पूरी कोशिश के बावजूद क्रमशः नमरूद, फ़िरऔन और अबू जहल को हिदायत देकर जन्नती नहीं बना सके, क्योंकि यह अल्लाह की इच्छा नहीं थी। बताइए, अबू लहब आख़िरी नबी से दुश्मनी करेगा—यह अल्लाह ने कब तय किया था? एक हदीस में है कि अल्लाह ने सूरा लहब को आसमान और ज़मीन की सृष्टि से पहले ही लिख दिया था [26]। तो क्या अबू लहब के पास आख़िरी नबी से दुश्मनी न करने का कोई और रास्ता था? यदि वह ईमान वाला हो जाता, तो अल्लाह की लिखी किताब झूठी हो जाती! क्या अबू लहब जैसा मामूली इंसान अल्लाह के फ़ैसले को बदल सकता है? और क़ुरआन में भी कहा गया है—नबियों के साथ उनके समय के दुश्मनों के दिल में दुश्मनी की भावना अल्लाह ने ही पैदा की [27]। तो फिर उन दुश्मनों का अपराध कहाँ है?
आरज़ अली: आप फिर झूठ बोल रहे हैं। इंसान केवल अपनी स्वतंत्र इच्छा से किए गए अमल के आधार पर ही जन्नत या जहन्नुम में जाता है। किसी और तरह से नहीं।
आगंतुक: आप ऐसा सोचते हैं? तो बताइए, आख़िरी नबी क्या अपनी योग्यता, अपने कर्म और अपने धर्म से आख़िरी नबी बने थे, या अल्लाह ने ही उन्हें आख़िरी नबी चुनकर भेजा था? बचपन में उनका सीना साफ़ किया गया था—किस अच्छे काम के बदले? आपका और मेरा सीना साफ़ क्यों नहीं किया गया? आख़िरी नबी की बेटी फ़ातिमा जन्नत की औरतों की सरदार होंगी [28]—किस योग्यता से? आख़िरी नबी की बेटी होने से? नबी के दो नाती जन्नत के युवकों के सरदार होंगे [29]—किस योग्यता से? नबी का ख़ून होने से? आपके देश में बड़े नेताओं के बेटे-बेटियाँ पिता की मृत्यु के बाद सत्ता में बैठते हैं। किसी भी तानाशाह के मामले में यही होता है। आप इसे परिवारवाद कहते हैं। लेकिन क्या धर्म में भी परिवारवाद चलता है? दूसरी ओर, ख़िज़्र ने जिस बच्चे को बचपन में किसी पाप से पहले ही मार दिया था—वह तो जन्म से ही काफ़िर था। उसका काफ़िर होना या जहन्नुम में जाना किस अयोग्यता से? वह तो वयस्क भी नहीं हुआ था [30] [31] [32]। तो इसमें इंसाफ़ कहाँ हुआ? और हदीस में यह भी कहा गया है कि अमल के द्वारा कोई जन्नत में नहीं जाएगा, बल्कि केवल अल्लाह की रहमत से जाएगा [33]। अल्लाह तो अपनी इच्छा से सब करते हैं। क़ुरआन में भी कहा गया है—”आपका पालनहार जो चाहे पैदा करता है और जिसे चाहे चुन लेता है” [34].
बंदे का रिज़्क़
दृश्य - 04
स्थान: आरज़ अली की कुटिया
समय: दोपहर
चरित्र: आरज़ अली, आगंतुक
घटना: आरज़ अली के चेहरे पर अब हल्का गुस्सा या खिन्नता है। आगंतुक की मुस्कान थोड़ी और बढ़ गई है।
आरज़ अली: जो काफ़िर होते हैं, उनके दिल पर अल्लाह मुहर लगा देता है। वे अल्लाह के नज़दीक अभिशप्त हैं, इसलिए वे जहन्नुम में जाएंगे। और निश्चय ही हम मुसलमान अल्लाह की नेमतों के प्राप्तकर्ता हैं।
आगंतुक: (मुस्कुराते हुए) आप लोग समझते हैं कि अल्लाह की सारी रहमत इंसानों पर ही बरसती है। वस्तुतः ऐसा नहीं है। अल्लाह की रहमत मुझ पर इंसानों की तुलना में कहीं ज़्यादा है। आदम को पैदा करने से लाखों साल पहले अल्लाह ने मुझे पैदा किया—यह वह ख़ुद जानते हैं। और अल्लाह की रहमत से मैं आज भी जीवित हूँ। लेकिन इंसान केवल 60, 70 या 100 साल जीते हैं। ऊपर से शिशु-मृत्यु और अकाल-मृत्यु की घटनाएँ भी बहुत हैं। मेरे लंबे जीवन में आज तक मैंने कोई बीमारी, दुख या अभाव नहीं देखा—यह सब अल्लाह की रहमत से है। लेकिन इंसान असंख्य बीमारियों, दुखों और अभावों से घिरे रहते हैं। फ़रिश्ते मुझे निशाना बनाकर आदिकाल से मिसाइलें छोड़ते हैं [35], लेकिन अल्लाह की रहमत से मैं सुरक्षित हूँ। उल्का-पात या बिजली गिरने से इंसानों के घर नष्ट हो जाते हैं, लोग मर जाते हैं। पवित्र मक्का में हज करने आए लोग मुझे लक्ष्य कर पत्थर फेंकते हैं, लेकिन अल्लाह की रहमत से आज तक एक भी पत्थर मुझ पर नहीं लगा। उल्टा वही पत्थर लौटकर हाजियों को लगता है! समुद्र में जहाज़ डूबने से, हज के दौरान हवाई जहाज़ के हादसों से, लाखों लोगों की भीड़ में दबकर हर साल अनगिनत हाजियों की मौत होती है—यह भी अल्लाह की रहमत से!
और दूसरी ओर, अल्लाह की रहमत से मैं पलक झपकते ही पूरी दुनिया की सैर कर सकता हूँ, अदृश्य को देख सकता हूँ, अनसुना सुन सकता हूँ, ख़ुद अदृश्य रहकर दूसरों के मन की बात जान सकता हूँ। इंसान अगर दो दिन भूखा-प्यासा या बिना नींद के रहे तो ढह जाता है, लेकिन मैं लाखों साल से बिना नींद और बिना भोजन के स्वस्थ और मज़बूत हूँ—यह भी अल्लाह की रहमत से है।
आरज़ अली: लेकिन इंसान ने भी तो बहुत कुछ हासिल कर लिया है। विज्ञान की शुरुआत इंसानों ने ही की। सूक्ष्मदर्शी, दूरबीन, रेडियो, टेलीविज़न, रॉकेट, इंटरनेट, मोबाइल फोन आदि से इंसान अब अदृश्य को देख रहा है, अनसुना सुन रहा है, आकाश और पाताल में घूम रहा है, भूख में ज़िंदा रहने के तरीक़ों पर शोध हो रहा है। अभी कुछ दिन पहले ही जेम्स वेब टेलीस्कोप की मदद से ब्रह्मांड की 13.5 अरब साल पुरानी दुर्लभ तस्वीरें भी प्रकाशित की गई हैं।
आगंतुक: यह सच है कि इंसान बहुत कुछ हासिल कर रहा है, और शायद आगे भी असंभव को संभव करेगा। लेकिन वे सब जिन्होंने यह किया और करेंगे—वे तो मेरे ही शिष्य हैं। बताइए, अंधी आज्ञापालन के विरुद्ध सबसे पहले किसने तर्क का सहारा लिया था? और विज्ञान का पिता जो तर्क और दर्शन है—यह तो आप भी जानते हैं।
आरज़ अली: तो आप कहना चाहते हैं कि यह विज्ञान का युग, यह मानव सभ्यता की प्रगति—यह सब अभिशप्त शैतान की बरकत है?
आगंतुक: यह सब तर्क और दर्शन की बरकत है। और मैं ही तर्कवाद का पिता हूँ। मुझसे पहले किसी ने कहीं तर्क का प्रयोग नहीं किया।
आरज़ अली: आप फिर छल-कपट का सहारा ले रहे हैं। महान अल्लाह ने ही हमें मार्गदर्शन दिया, तभी आज हम इंसान इतने उन्नत हैं। यह जो वैज्ञानिक खोजें हुई हैं, इनके शोध के लिए जो बुद्धि और श्रम चाहिए था—वह किसने दिया? आज जो दवाओं से हम रोगमुक्त हो रहे हैं, यह सब तो अल्लाह ही कर रहे हैं।
आगंतुक: तो बताइए, जब ग़लत इलाज से मरीज़ की मौत हो जाती है, तब आप डॉक्टर का मुक़दमा क्यों मांगते हैं? अगर जन्म-मृत्यु अल्लाह के हाथ में है, तो क्या उस ग़लत इलाज के लिए डॉक्टर को ज़िम्मेदार ठहराएँगे, या यह मानकर कि अल्लाह ने ही उस वक़्त उस मरीज़ की मौत लिख दी थी, डॉक्टर की ग़लती को स्वीकार कर लेंगे?
आरज़ अली: उसके लिए तो निश्चित ही वही डॉक्टर ज़िम्मेदार है। अल्लाह तो उसे ग़लत इलाज करने के लिए मजबूर नहीं करेगा। यहाँ या तो वह ज़िम्मेदार है, या आप।
आगंतुक: तो फिर मौत की रूह कब्ज़ करने के लिए अज़्राईल को कौन भेजता है—मैं, या वह डॉक्टर ख़ुद…?
आरज़ अली: ग़लत इलाज की ज़िम्मेदारी उसी डॉक्टर की है। लेकिन सही इलाज हो जाए तो उसका श्रेय केवल अल्लाह को। डॉक्टर की ग़लती का बोझ अल्लाह क्यों उठाएगा?
आगंतुक: ओ अच्छा! तो फिर अल्लाह ने क्यों कहा—”मैं ही जीवन देता हूँ और मृत्यु लाता हूँ, और मैं ही अंतिम मालिक हूँ।” [36]। अच्छा, आपकी बात मान लेते हैं। तो बताइए, चिकित्सा वैज्ञानिकों द्वारा किसी बीमारी की दवा खोजने से पहले क्या अल्लाह अपनी क़ुदरत से लोगों को ठीक कर देता था? कुछ सौ साल पहले ही पोलियो, हैज़ा जैसी बीमारियों से पूरे गाँव के गाँव ख़त्म हो जाते थे। शिशु-मृत्यु और मातृ-मृत्यु की दर भयावह थी। तब अल्लाह इंसानों को लंबी उम्र नहीं देता था। अज़्राईल का आना-जाना बहुत ज़्यादा था। लेकिन आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की तरक़्क़ी से, अल्लाह की ‘क़ुदरत’ भी मानो बढ़ गई। अब अल्लाह ज़्यादा लोगों को मौत से बचा सकता है। अज़्राईल को भी अस्पताल और आधुनिक दवाओं की बदौलत थोड़ा आराम मिल गया है।
आरज़ अली: अल्लाह की शक्ति पहले भी थी, अब भी है। अल्लाह ने बस यह सब इंसानों के हाथ में छोड़ दिया है।
आगंतुक: यानी आप कहना चाहते हैं कि अब अल्लाह की मर्ज़ी इंसानों पर निर्भर हो गई है? पहले वह जिसे चाहें मौत दे सकते थे, लेकिन आजकल चिकित्सा विज्ञान की वजह से अल्लाह का फ़ैसला इंसानों पर निर्भर हो गया है?
आरज़ अली: मैंने यह नहीं कहा। आपके साथ बहस करने की मेरी सामर्थ्य नहीं। आप बताइए, आप इंसानों का अहित क्यों चाहते हैं?
आगंतुक: किसी इंसान का अहित मेरी इच्छा नहीं है और न ही मैं करता हूँ। पवित्र धर्मग्रंथों में ऐसी कितनी ही आज्ञाएँ और नियम हैं, जिन्होंने इंसानों का अहित ही किया है सदियों से। जैसे कि युद्धबंदी महिलाओं को ग़नीमत का माल बनाकर दासी बना लेना [37], जो लगभग हर धर्म में एक भयावह प्रथा रही है। इंसानों के भले के लिए इन नियमों को तोड़ने की प्रेरणा मैंने दी। मेरी ही प्रेरणा से उन्होंने जेनेवा कन्वेंशन बनाई, संयुक्त राष्ट्र की स्थापना की, ताकि युद्धबंदी महिलाओं को बलात्कार से बचाया जा सके। अगर मैं धर्म के आदेशों का उल्लंघन करने की प्रेरणा न देता, तो आज के ये ‘ताग़ूती’ मानवाधिकार घोषणापत्र कहाँ से आते [38]? क्योंकि धर्म के आदेश तोड़ने के लिए प्रेरित करना ही मेरा काम है।
मान लीजिए, कम उम्र में लड़कियों की शादी हो जाए तो मातृ-मृत्यु और शिशु-मृत्यु बढ़ती है। लड़कियों को शारीरिक अनेक समस्याएँ होती हैं। धर्मों ने कहा—ज़्यादा से ज़्यादा बच्चे पैदा करो [39]। लेकिन इंसानों के बनाए क़ानून अब अधिक संतान पैदा करने से मना कर रहे हैं।
आरज़ अली: इंसानों के बनाए क़ानूनों में अनेक ग़लतियाँ हैं। अल्लाह के क़ानून में कोई ग़लती नहीं हो सकती।
आगंतुक: आदम-हव्वा की घटना में हव्वा को ही मुख्य अपराधी ठहराकर सदियों तक औरतों पर अत्याचार और उनके अधिकार हरण का रास्ता खोल दिया गया [40]। इस्लाम में महिला नेतृत्व हराम है [41]। लेकिन अब आप लोग महिला-पुरुष के समान अधिकार और अवसर सुनिश्चित कर रहे हैं। यह प्रेरणा आपको कौन दे रहा है?
या फिर देखिए, मुरतद की सज़ा का मामला [42]—इस्लाम कहता है कि जो इस्लाम छोड़ दे, उसे मार डालो। लेकिन आज के मानवाधिकार क़ानून कहते हैं कि हर इंसान को अपने विश्वास या अविश्वास का पूर्ण अधिकार है, और इसके लिए किसी को धमकाना, सज़ा देना या दबाव डालना ग़ैरक़ानूनी है।
धर्मनिरपेक्षता [43]—सभ्य दुनिया में अब किसी का धर्म नहीं देखा जाता, काम के आधार पर इंसान का मूल्यांकन होता है। राज्य यह नहीं देखता कि कौन मुसलमान है और कौन हिंदू। कोई अपने धर्म के कारण विशेष सुविधा नहीं पा सकता। ये सब अल्लाह की शरीयत से बाहर, इंसानों के बनाए ‘ताग़ूती’ क़ानून हैं, जिनसे दूर रहने का आदेश दिया गया है। लेकिन सभ्य समाज इन्हीं क़ानूनों को लागू कर रहा है [44]। और इसका नतीजा है आधुनिक युग में मानवता का ज्ञान-विज्ञान और कला में उत्कर्ष। महिलाएँ अब अंतरिक्ष में जा रही हैं, सैटेलाइट के इंजन ठीक कर रही हैं, जबकि धर्म का आदेश है कि महिलाएँ घर के भीतर रहें।
आरज़ अली: लेकिन अगर महिलाएँ इतनी ज़्यादा बाहर निकलेंगी तो परिवार टूट जाएँगे। फिर हमारा समाज कैसे बचेगा?
आगंतुक: परिवार को बचाने की ज़िम्मेदारी केवल स्त्री पर ही क्यों डाली जाए? अब समय आ गया है कि पुरुष भी बराबर की ज़िम्मेदारी लें। धर्म ने स्त्रियों के संपत्ति पाने के अधिकार को पुत्र के आधे पर सीमित कर दिया है। कई धर्मों में तो स्त्रियों को संपत्ति मिलती ही नहीं। पत्नी के अवज्ञाकारी होने की आशंका होने पर उसे मारने की अनुमति भी दी गई है। आधुनिक ‘ताग़ूती’ समाज इन नियमों को बदलकर स्त्री-पुरुष के समान अधिकार सुनिश्चित करना चाहता है। यह प्रेरणा किससे आ रही है? कुरआन की सूरा कहफ़ में कहा गया है [45], ज़ुलक़रनैन पूर्व और पश्चिम में धरती के दो अंतिम छोर तक पहुँचे थे। जबकि धरती के पूर्व-पश्चिम में कोई अंतिम छोर नहीं है। फिर हदीस में भी कहा गया है कि सूरज रात को अल्लाह के अरश के नीचे जाकर इबादत में व्यस्त रहता है [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56]। आधुनिक विज्ञान कहता है कि सूरज रात में कहीं नहीं जाता। धरती के गोलाकार होने के कारण दूसरी ओर के लोगों को सूरज दिखता रहता है। नबी की बात के विपरीत यह ‘ताग़ूती’ ज्ञान हासिल करने की प्रेरणा किसने दी? जो पढ़कर इस्लाम पर संदेह पैदा होता है, उन बातों को तर्क और प्रमाण से परखने और खोजने की चिंगारी किसने भड़काई?
आरज़ अली: लेकिन इन कुरआन और हदीस की निश्चित ही कोई और व्याख्या होगी। यह ग़ैबी इल्म है, जिसे इंसान समझ नहीं सकता। हो सकता है ग़ैबी तौर पर सूरज रात को अल्लाह के अरश के नीचे चला जाता हो। या फिर इन्हें किसी और तरह से विज्ञान के साथ मिलाकर समझाना होगा।
आगंतुक: जब आप कुरआन-हदीस को इंसान के बनाए यानी ‘ताग़ूती’ विज्ञान के साथ मिलाकर समझाने जाते हैं, तब आप विज्ञान की श्रेष्ठता को मान लेते हैं। यानी विज्ञान आपका सत्यापन मानक बन जाता है, और आप उसी से अल्लाह की बात को मोड़-तोड़कर समझा रहे हैं! यह हास्यास्पद है कि अल्लाह और रसूल की बात को सीधा स्वीकार करने के बजाय आप उनकी बात को विकृत करके विज्ञान से मिलाने की कोशिश कर रहे हैं। विज्ञान के प्रमाण-पत्र से सर्वशक्तिमान अल्लाह की बात को पास कराना पड़ रहा है—यही तो मेरी जीत है। यह जीत है इंसानी ज्ञान की, जीत है संदेह की, जीत है तर्क की। सच तो यह है कि कथित धर्मग्रंथों में खगोलशास्त्र, रसायनशास्त्र, भूगोल, जीवविज्ञान, प्राणिविज्ञान जैसी जीवनोपयोगी तमाम विद्या को लगभग निषिद्ध कर दिया गया है, और उसकी जगह स्वर्ग-नरक के सिद्धांत और पौराणिक कथाएँ रख दी गई हैं। और मान लीजिए, मेरी प्रेरणा के बिना आज जो संगीत आपको मोहित करता है, जो चित्रकला आपकी आँखों को सुकून देती है—वे कुछ भी संभव न होता।
आरज़ अली: संगीत—हाँ, मैं संगीत पसंद करता हूँ। इस्लाम में वाद्ययंत्र के साथ संगीत निषिद्ध है [57]। चित्रकला भी निषिद्ध है [58]। लेकिन वैज्ञानिक शोध तो निषिद्ध नहीं है।
आगंतुक: संशय समस्त ज्ञान का जनक है। आज मनुष्य सागर की गहराइयों में विचरण करता है, आकाश में उड़ान भरता है, परमाणु के गर्भ में प्रवेश करता है और असंभव को संभव कर दिखाता है; किन्तु इन में से किसी भी बात की शिक्षा धर्म या धार्मिक शिक्षण संस्थानों ने नहीं दी। बल्कि उन्होंने तो कहा—बिना प्रमाण के विश्वास करो। अपने कर्तव्यवश मैंने ही उन शिक्षाओं की प्रेरणा दी है—पहले तर्क और दर्शन के माध्यम से, फिर विज्ञान के द्वारा [59], और वर्तमान में आधुनिक शिक्षण संस्थानों के माध्यम से। किन्तु इससे केवल अधार्मिक ही नहीं, धार्मिक भी लाभान्वित हो रहे हैं। जल, थल और वायुयान के बिना, केवल पैदल पवित्र हज करने वालों की संख्या क्या होती—क्या आपने कभी गणना की है? आज वाज़, अज़ान, पवित्र कुरआन की तिलावत, जनाज़े की नमाज़ तक में माइक, रेडियो, टेलीविज़न का उपयोग हो रहा है। इससे पुण्य का स्तर निश्चय ही बढ़ रहा है। अतः न केवल पाप से नरक में जाने के लिए, बल्कि पुण्य से स्वर्ग में जाने के लिए भी क्या मैं मनुष्य की सहायता नहीं कर रहा हूँ? इसके अतिरिक्त मैं निरंतर अल्लाह को स्मरण करता हूँ, उसका हुक्म मानता हूँ, उसकी इबादत करता हूँ—परन्तु न नरक से मुक्ति की अपेक्षा से, न स्वर्ग प्राप्ति की चाह से। नरक की सज़ा और स्वर्ग के सुख मेरे लिए निरर्थक हैं। न स्वर्ग के फल, न शहद-पानी, न स्वर्ण-भवन, न सुंदर हूर-ग़िलमान—इनमें से किसी में मेरी रुचि है। पशु-पक्षी, कीट-पतंग सभी अल्लाह की इबादत करते हैं, पर वे भी न स्वर्ग-लोभ से करते हैं न नरक-भय से। जबकि मनुष्य तो यही करता है। धर्म के झंडाबरदारों में सहस्रों-लाखों में कोई विरला ही होगा जो केवल अल्लाह के प्रेम में प्रेरित होकर पुण्य करे, जिसका स्वर्ग-नरक से कोई संबंध न हो। जो स्वर्ग-लोभ या नरक-भय से पुण्य करे, वह मुझसे भी अधम है, पशु से भी निकृष्ट। लोभ और भय से जो करता है, मैं उससे ऊपर हूँ—उससे कहीं अधिक करता हूँ।
आरज़ अली: सब तो स्वर्ग के लोभ में धर्म के मार्ग पर नहीं चलते। बहुत से लोग हैं जो अल्लाह और उसके रसूल से प्रेम करके ही धर्म का पालन करते हैं।
आगंतुक: यह भी अल्लाह ने पहले से तय कर रखा है। और जो सही तरीके से धर्म का पालन करते हैं, उनके लिए अल्लाह ने ही धर्म को आसान कर दिया, तभी वे ऐसा कर पाते हैं। अल्लाह के नबी ने कहा है—हर व्यक्ति वही अमल करता है जिसके लिए वह पैदा किया गया है, या जो उसके लिए आसान किया गया है [60]। किसी के लिए अमल आसान और किसी के लिए कठिन कर देना—इसमें न्याय कहाँ रहा? और अल्लाह की तयशुदा तक़दीर के विरुद्ध मैं किसी को नरक में नहीं भेज सकता, न कोई प्रचारक उसे स्वर्ग में पहुँचा सकता है। मैं केवल उसी को गुमराह कर सकता हूँ जिसके लिए अल्लाह ने नरक अनिवार्य कर रखा है [61]। हाँ, अस्थायी मनोपरिवर्तन संभव है—जैसे कोई कम्पास की सुई को पल भर के लिए हटा सकता है, पर वह छूटते ही अपने ध्रुव की ओर लौट आती है। ठीक वैसे ही सच्चे मार्गवाले को मैं पथभ्रष्ट कर पाप करा सकता हूँ, यहाँ तक कि उसे ‘काफ़िर’ कहलवा सकता हूँ, किन्तु उसके अंतिम क्षण में तौबा कर मोमिन बन स्वर्ग जाने से रोक नहीं सकता। उसी प्रकार विपरीत मार्ग वाले को कोई उपदेशक भलाई करा सकता है, उसे मोमिन कहला सकता है, पर उसे अंतिम समय में ‘बेईमान’ होकर नरक जाने से नहीं रोक सकता। इस प्रकार कई काफ़िर स्वर्ग में जाएंगे, और कई मोमिन नरक में।
आरज़ अली: मोमिन वे हैं, जो तर्क-बुद्धि से अल्लाह को मानते हैं और उसके धर्म को सत्य पाते हैं। तर्क से सोचो तो इस्लाम की सच्चाई प्रकट हो जाती है।
आगंतुक: मोमिन की यह परिभाषा कहाँ से पाई, मुझे नहीं मालूम। पर इस्लाम के अंतिम नबी ने कहा है—मोमिन वह है जो नाक में रस्सी बंधे ऊँट की तरह है; जो नबी और ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन की बात को ज्यों का त्यों पकड़ लेता है और किसी हालत में छोड़ता नहीं [62]। इस उपमा का अर्थ तो स्पष्ट है [63]।
अल्लाह ने जिन मोमिनों को स्वर्ग के लिए पैदा किया है, और जिन्हें नरकवासी नहीं बनाना चाहता—मैं लाख कोशिश कर भी उन्हें नरक में नहीं भेज सकता। लाखों नबियों-रसूलों में हर एक को मैंने पथभ्रष्ट करने की कोशिश की, कुछ में सफल भी हुआ, पर किसी को नरक में नहीं भेज सका। मेरी चाल में आकर उन्होंने जो छोटे-छोटे पाप किए, उनका दंड अल्लाह ने इसी दुनिया में दे दिया, और परलोक में वे निष्पाप रहे—जैसे हज़रत आदम का स्वर्ग से निष्कासन, हज़रत यूनुस का मछली के पेट में रहना, हज़रत अय्यूब की बीमारी, अंतिम नबी का दाँत शहीद होना [64]—ये सब उन्हीं पापों के दंड थे।
आरज़ अली: तो सभी नबियों-रसूलों की तरह आप भी अल्लाह से हर बात के लिए माफी माँग सकते थे। अल्लाह अत्यंत कृपालु है, अवश्य माफ़ कर देता।
आगंतुक: आज तक मैंने अल्लाह का केवल एक हुक्म तोड़ा है—आदम को सज्दा न करना। और बाक़ी सबने उसके असंख्य हुक्म तोड़े हैं और तोड़ते जा रहे हैं। नबी-रसूलों ने भी तोड़े, पर इसके लिए उसने क्रोध नहीं किया, न किसी को अनंत दंड दिया। जिब्राईल, मीकाईल और इस्राफ़ील तीनों फ़रिश्तों को अल्लाह ने आदेश दिया कि आदम को बनाने के लिए धरती से मिट्टी लाएँ। पर तीनों फ़रिश्ते मिट्टी की असहमति मानकर खाली हाथ लौट गए—आदेश का उल्लंघन कर। अंततः अज़्राईल फ़रिश्ते ने ज़बरदस्ती मिट्टी ली और उससे आदम को बनाया गया। पर चार बार आदेश उल्लंघन के बावजूद अल्लाह ने मिट्टी को जलाकर राख नहीं किया, बल्कि पानी से गारा बनाकर आदम की मूर्ति बनाई और उसमें प्राण फूँका। और तीन फ़रिश्तों ने उसका आदेश तोड़ा—यह मानकर कि मिट्टी की इच्छा सर्वोपरि है—फिर भी उसने परवाह नहीं की। पर मेरे एक आदेश उल्लंघन पर उसने मुझे अभिशाप दिया, गले में लानत की तौक डाल दी, और स्वर्ग से निकालकर धरती पर सदा के लिए निर्वासित कर दिया। क्या यह उसका पक्षपात या अन्याय नहीं? नहीं—इसमें उसने तनिक भी पक्षपात या अन्याय नहीं किया। वह अन्यायी नहीं—वह सबका अंतिम आश्रय है। अन्याय तो मनुष्य ने किया, जो उसकी गुप्त इच्छा और उद्देश्य को समझ न सका।
शापित शैतान
दृश्य - ०५
स्थानः आरज़ अली का कच्चा घर
समयः दोपहर
पात्रः आरज़ अली, आगंतुक
घटना: आरज़ अली के चेहरे पर हल्की असहायता। आगंतुक के चेहरे पर भरा हुआ आत्मविश्वास।
आरज़ अली: क्या आप जानते हैं कि हम मुसलमान आपको प्रतिदिन, निरंतर कितनी असीमित बद्दुआएँ देते हैं, गालियाँ देते हैं, और आपसे महान अल्लाह की पनाह माँगते हैं?
आगंतुक: यह आप लोग करते हैं, फिर भी मैं आपका अहित नहीं करता। बल्कि जन्म के प्रथम क्षण से ही कल्याण करता हूँ। हदीस में वर्णित है कि जन्म के समय शैतान के स्पर्श के कारण ही नवजात शिशु ज़ोर से रोता है [65]. बताइए, यदि मैं स्पर्श न करता तो नवजात शिशु जन्म के समय न रोते—इसमें क्या समस्या होती? आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार नवजात का रोना अत्यंत आवश्यक है। यह उनके श्वसन-तंत्र को साफ करने, फेफड़ों को फैलाने और पहली साँस लेने के लिए स्वाभाविक व महत्त्वपूर्ण प्रतिक्रिया है। जन्म के बाद यदि बच्चा न रोए, तो उपस्थित चिकित्सक उसकी पीठ या पैरों को धीरे से सहलाकर या मुँह-नाक से बलगम चूसकर उसे उत्तेजित करते हैं, ताकि वह पहली साँस ले और रोना प्रारंभ करे। कई बार जन्मजात असामान्यता या श्वसन-तंत्र में अवरोध होने से बच्चा न रो सके, जिसका उपचार आवश्यक है। तो सोचिए—जन्म के पहले ही क्षण से मैं आपकी मदद कर रहा हूँ; आपको साँस लेने, श्वसन-मार्ग साफ़ करने और फेफड़े फैलाने में सहायता कर रहा हूँ। है न? बदले में आप मुझे बद्दुआ दें, फिर भी मैं हर नवजात की सहायता करता रहूँगा।
आरज़ अली: आप मुद्दे पर रहें। यह तो आप नकार नहीं सकते कि आप शापित, तिरस्कृत और अल्लाह की कृपा से निर्वासित हैं।
आगंतुक: यह सब सत्य भी न हो सकता है।
प्रथम—यदि मैं अल्लाह का अप्रसन्न व शापित होता, तो वे मुझे शारीरिक या मानसिक दंड दे सकते थे; रोग, शोक, दुःख-कष्ट व अभाव में डाल सकते थे, जैसे हारूत-मारूत फ़रिश्तों के साथ हुआ। वे मुझे मृत्यु देकर इस जगत से समाप्त भी कर सकते थे। परंतु उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया, बल्कि विपरीत किया—मुझे असाधारण शक्तियाँ दीं। यदि कोई कहे, “तुम रोग, शोक, दुःख-कष्ट से मुक्त रहो और दीर्घायु हो” — तो क्या यह आशीर्वाद है या अभिशाप? अल्लाह ने मुझे न कोई रोग दिया, न कोई शोक, न अकालमृत्यु, न कोई अभाव—बल्कि दीर्घ जीवन दिया। इनमें अभिशाप कहाँ है?
द्वितीय—कहा जाता है कि मैं तिरस्कृत हूँ, अर्थात अल्लाह ने मेरे गले में लानत का तौक़ डाल दिया है। यह भी पूरी तरह सही नहीं। ‘तौक़’ मुझे मिला है, पर वह न लकड़ी का है, न लोहे का, न सोने का; न किसी ने उसे देखा, न सुना। वह कै़दी के गले में जैसे तिरस्कार का प्रतीक होता है, वैसा ही विजेता के गले में पुरस्कार का भी। भिन्नता केवल निर्माण व उद्देश्य की है। इस पर बाद में कहूँगा।
तृतीय—कहा जाता है कि मैं जन्नत से निष्कासित होकर धरती पर निर्वासित हुआ हूँ। किंतु अल्लाह के आदेश पर धरती पर आना-जाना या स्थायी निवास तो अन्य फ़रिश्ते भी करते हैं। तो क्या वे भी निर्वासित हैं? जिब्रईल पैग़म्बर को संदेश देने, अज्राईल मृत्यु लेने, मीकाईल वर्षा व भोजन बाँटने—सभी का कार्य धरती पर है। क़िरामन-क़ातिबीन और मुनकर-नकीर का कार्य तो पूरी तरह यहीं तक सीमित है। यदि वे निर्वासित नहीं, तो मैं किस न्याय से निर्वासित? मैं भी अल्लाह के आदेशानुसार अपना कर्तव्य धरती पर निभा रहा हूँ—बल्कि उनसे अधिक स्वतंत्रता के साथ।
आरज़ अली: आपका दावा है कि आप फ़रिश्तों से भी अधिक शक्तिशाली हैं?
आगंतुक: यह मैंने नहीं, अल्लाह ने कहा है। जिब्रईल संदेशवाहक हैं, पर सुबह का आदेश शाम तक पहुँचा नहीं पाते। सीरत पढ़िए—कितनी बार वे देर से पहुँचे। पैग़म्बर को ज़हर देने के समय भी वे भोजन के बाद आए [66]। एक बार तो आयशा के कमरे में कुत्ता होने से वे प्रवेश ही न कर सके [67]. सोचिए—अल्लाह की वह़ी का कार्य छोड़, वे कुत्ते के कारण लौट गए! मीकाईल वर्षा का आदेश तुरंत लागू नहीं कर सकते। प्रत्येक फ़रिश्ता अपने कार्य में बंधा है—पर मेरे कार्य में कोई बंधन नहीं। मैं अल्लाह का नियुक्त शिक्षक हूँ—विश्वास का परीक्षक। और मैंने कभी अपने कार्य में लापरवाही नहीं की; अल्लाह गवाह है।
आरज़ अली: ये सब असत्य है। आपने आदम को सज्दा न करके उन्हें निषिद्ध फल खिलाया और पतन कराया। अल्लाह ने स्पष्ट कहा—शैतान इंसान का दुश्मन है। यही सत्य है।
आगंतुक: शापित और पतित कोई इतना शक्तिशाली कैसे हो सकता है? मेरी शक्ति कहाँ से आती है? मैं पतित हूँ या पुरस्कृत—और क्या मैंने मानवता का मित्रवत कार्य नहीं किया? आप थोड़े भ्रमित हो रहे हैं; इसे स्पष्ट कर दूँ।
फ़रिश्ते नूर से बने हैं—पवित्र, परंतु कम बुद्धि वाले। घर के सामान या मशीन की तरह, जो केवल आदेश मानते हैं। ‘जी हुज़ूर’ के सिवा ‘ना हुज़ूर’ उनका स्वभाव नहीं। जब अल्लाह ने आदम की रचना से पहले उनसे राय माँगी, तो उन्होंने कहा—“मनुष्य आपके आदेश नहीं मानेगा, इबादत नहीं करेगा—इसलिए आदम की रचना न हो” [68].
आरज़ अली: अब आप फ़रिश्तों का भी अपमान कर रहे हैं।
आगंतुक: अपमान कहाँ? जैसे घर की कुर्सी-टेबल आपकी सुविधा के लिए है, पर उसका अपना कोई विवेक नहीं—वैसे ही फ़रिश्तों का भी है। मनुष्य अब रोबोट बना रहा है—जो केवल प्रोग्राम अनुसार काम करता है। क्या फ़रिश्तों का विवेक रोबोट से अलग है? बिना विवेक की कोई वस्तु, चाहे जितनी बहुमूल्य हो, उसकी क़ीमत कितनी?
इब्लीस की सत्यनिष्ठा
दृश्य - ०६
स्थानः आरज़ अली का कच्चा घर
समयः दोपहर
पात्रः आरज़ अली, आगंतुक, आरज़ अली की पत्नी
घटना: आरज़ अली बहस में जीतने को आतुर। आगंतुक के चेहरे पर पहले से भी अधिक आत्मविश्वास व अहंकार।
आगंतुक: अल्लाह को प्रसन्न करने के लिए मैं झूठा सज्दा भी कर सकता था। भीतर घृणा और बाहर प्रसन्नता—ऐसा करता तो अल्लाह मुझे दंड नहीं देते।
आरज़ अली: यदि आप मुख से एक और अंतर्मन में कुछ और सोचते, तो अल्लाह निश्चित ही आपके मन की बात जान लेते। अल्लाह के साथ चालाकी करके आप बच नहीं सकते थे।
आगंतुक: क्या आपको लगता है कि अन्य फ़रिश्ते आदम की संतान के कर्मों से बहुत प्रसन्न हैं? कदापि नहीं। वे तो आदम की सृष्टि के समय ही कड़े विरोध में थे। परंतु अल्लाह को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने अपने अंतर्मन की बात मन में ही रखी और बाहर से सज्दा किया। उनके भीतर कुछ और था, बाहर कुछ और। मेरा अंतः और बाह्य समान है। उस दिन अंतर्मन में किसका क्या था, अल्लाह ने वह नहीं देखा; उन्होंने देखा केवल यह कि किसने सज्दा किया और किसने नहीं। आत्मसम्मान रखने वाला कोई व्यक्ति कभी ऐसा कार्य नहीं करेगा जिससे उसका आत्मसम्मान नष्ट हो। और मैं तो बुद्धि-सम्पन्न एक जिन्न हूँ—कैसे अपने आत्मसम्मान को बलिदान कर दूँ?
आरज़ अली: आप जितना भी कहें, अल्लाह तो क़ुरआन में झूठ की बात नहीं लिखेंगे। क्या आप यह कहना चाहते हैं कि अल्लाह ने क़ुरआन में झूठ कहा?
आगंतुक: सूरा अल-अनफ़ाल की आयत 43 आपने पढ़ी है, जनाब? उसमें क्या कहा गया है, बताइए? उस आयत का संदर्भ और घटनाक्रम ध्यान से देखा है? स्वप्न के माध्यम से काफ़िरों की संख्या कम दिखाना—मुसलमानों का मनोबल बढ़ाने के लिए—क्या यह असत्य नहीं? तो फिर कैसे कहते हैं कि अल्लाह आवश्यकता पड़ने पर झूठ या छल का सहारा नहीं लेते?
आरज़ अली: जनाब, अब तो बात हद से बढ़ रही है। सूरा अल-अनफ़ाल की आयत 43 में जो कहा गया है, उसमें अल्लाह ने मोमिनों की आवश्यकता के लिए नबी को एक ऐसा स्वप्न दिखाया जो वस्तुस्थिति से भिन्न था। पर इससे क़ुरआन झूठा कैसे हो जाएगा?
आगंतुक: सूरा आले-इमरान की आयत 54 आपने नहीं पढ़ी? उसमें तो अल्लाह ने स्पष्ट कहा है कि अल्लाह सबसे श्रेष्ठ कूटनीतिज्ञ हैं। अर्थात अल्लाह चाहे तो रणनीति और छल का सहारा भी ले सकते हैं—क़ुरआन स्वयं इसकी गवाही देता है।
आरज़ अली: आप कहना चाह रहे हैं कि अल्लाह छल भी करते हैं? अल्लाह ने आपको जो दंड दिया, वही उचित था। इसी कारण अल्लाह आपको जहन्नम की आग में अनंत काल तक जलाएंगे।
आगंतुक: यह आप कह सकते हैं। मुझे मालूम है कि अल्लाह हैं और वे मुझे दंड देंगे—मैं इसे भलीभांति जानता हूँ। इस सत्य को जानते हुए भी मैंने स्वयं को अल्लाह की अंतः इच्छा पूरी करने के लिए समर्पित किया। जब आदम की रचना हुई, अल्लाह ने फ़रिश्तों को आदेश दिया—आदम को सज्दा करो। आदेश पाकर सभी फ़रिश्तों ने सामूहिक रूप से, आदम को क़िब्ला बनाकर सज्दा किया। लेकिन मैंने सज्दा नहीं किया। अल्लाह के स्थान पर आदम को बैठाकर उन्हें सज्दा करना मेरे विवेक के विरुद्ध था। मेरे विवेक ने कहा—अल्लाह ने स्पष्ट कहा है, “मेरे सिवा किसी को सज्दा न करो।” तो उस दिन क्यों कहा कि आदम को सज्दा करो? शायद इसका कारण फ़रिश्तों की बुद्धि की परीक्षा लेना था—देखना था कि जिसे वे तुच्छ समझते हैं, क्या उसे और अल्लाह के अलावा किसी को सज्दा करने में आपत्ति करते हैं या नहीं।
आरज़ अली: लेकिन उस समय यह आपका तर्क नहीं था। आपने तो अहंकार में आकर सज्दा नहीं किया।
आगंतुक: जनाब, मैंने सज्दा क्यों नहीं किया—यह तो मैं स्वयं सबसे बेहतर बता सकता हूँ। क्या आपने कभी मेरा आत्मपक्ष सीधे मुझसे सुनना चाहा? या केवल अल्लाह की भेजी हुई किताब से ही मेरे कथित अपराध को पढ़ा? न्याय तो तभी होगा जब आप मेरा पक्ष भी मेरे ही मुख से सुनें। किसी और के मुँह से मेरा अपराध सुनना, और मेरी सफ़ाई न सुनना—क्या यह आपका कर्तव्य-भंग नहीं है?
कल्पना कीजिए—एक व्यक्ति अपने पाँच पुत्रों को बुलाकर एक राहगीर की ओर इशारा करते हुए कहे, “तुम सब इसे ‘पिता’ कहकर पुकारो।” पितृ-आदेश का पालन करना धर्म है—इस नियम का पालन करते हुए चार पुत्रों ने उस राहगीर को ‘पिता’ कह दिया। लेकिन पाँचवें पुत्र ने नहीं कहा। उसने सोचा—‘पिता’ दो नहीं हो सकते। राहगीर को ‘पिता’ कहना झूठ होगा। और पिता तो पहले ही कह चुके हैं, “कभी झूठ मत बोलना।” मेरे मुँह से राहगीर को ‘पिता’ कहने की मधुर ध्वनि सुनकर पिता प्रसन्न हों—यह निश्चित ही उनका उद्देश्य नहीं था; यह तो हमारी बुद्धि की परीक्षा थी। अतः इस आदेश का अंधानुकरण न करना ही उचित है। इस विचार से उस पुत्र ने अपने जीवन का महान कर्तव्य निभाया और उस कपटी आदेश को अस्वीकार किया। पिता ने अपने चार पुत्रों की अज्ञानता देखकर दुःख किया और पाँचवें पुत्र की विवेकशीलता के पुरस्कारस्वरूप उसे सम्मानित किया।
आरज़ अली: आपकी इन बातों का कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि अल्लाह के हुक्म का पालन करने से बढ़कर और कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं हो सकता।
आगंतुक: अल्लाह क्या मन का विचार देखते हैं, या केवल कर्म का? आप गाड़ी चला रहे हों और अनजाने में किसी को मार दें—एक बच्चा स्वयं गलती से आपकी गाड़ी के नीचे आ जाए—क्या अल्लाह आपके अंतर्मन को नहीं समझेंगे? अल्लाह तो अंतर्यामी हैं। न मनुष्य और न फ़रिश्ता—किसी का बाहरी आचरण देखकर वे संतुष्ट होते हैं; वे तो मन का मूल्यांकन करते हैं। आदम को सज्दा कराने के आदेश में अल्लाह फ़रिश्तों की बुद्धि की परीक्षा ले रहे थे। मैं उसमें सफल हुआ, इसलिए उन्होंने मुझे विजय का प्रतीक प्रदान किया। कुछ लोग कहते हैं कि यह मेरी पराजय की निशानी है, या लानत का तौक़। वस्तुतः अल्लाह ने इसे मुझे असाधारण शक्ति के रूप में प्रदान किया—विजय के चिह्न के रूप में।
आरज़ अली: हम मोमिन मानते हैं कि आप आदम के शत्रु हैं, और आदम की संतान के भी। क्योंकि आपने निषिद्ध फल खिलाकर आदम को जन्नत से निकाल दिया। क़यामत तक यही हमारे बीच दुश्मनी के लिए पर्याप्त कारण है।
आगंतुक: जन्नत एक चिर-शुद्ध स्थान है—वहाँ किसी भी नापाकी का प्रवेश नहीं। कहा जाता है कि यौन-संबंध से मनुष्य नापाक हो जाता है। अतः यदि आदम-हव्वा जन्नत में रहते, तो उन्हें आजीवन यौन-संबंध से वंचित रहना पड़ता। परिणामस्वरूप, आदम संतान-विहीन और वंशहीन रहते। आदम के प्रेम की पूर्ति और वंशवृद्धि के उद्देश्य से ही अल्लाह ने उन्हें पृथ्वी पर स्थान दिया।
आरज़ अली: यह तो आप गलत कह रहे हैं। यदि जन्नत में यौन-संबंध वर्जित होता, तो हम मोमिन बंदे जन्नत में मिलने वाली हूरों के साथ संगम कैसे करते? हदीस में वर्णित है कि हम उन सुंदरी युवतियों के साथ अनंतकाल तक रति-क्रीड़ा कर सकेंगे।
आगंतुक: प्रारंभिक जन्नत में हूरें थीं ही नहीं—आपको यह भी पता नहीं। याद कीजिए, आदम की एकाकीपन को दूर करने के लिए अल्लाह ने उनकी बाईं पसली से हव्वा को उत्पन्न किया था [69]। बताइए, यदि वहाँ हूरें होतीं, तो आदम अकेलापन क्यों महसूस करते? उस जन्नत में तीन प्रकार के वृक्ष थे—पहला, सुखद आहार देने वाला वृक्ष, जिसके फल सामान्य खाद्य थे; दूसरा, जीवन-वृक्ष, जिसके फल अमरता का प्रतीक थे; तीसरा, ज्ञान-वृक्ष, जिसके फल ज्ञानवृद्धि में सहायक थे। यही ज्ञानवर्धक फल निषिद्ध फल था।
आरज़ अली: और वही फल आपके कारण ही आदम और हव्वा को खाना पड़ा! आपकी वजह से ही इंसान की आज यह दुर्दशा है। अगर आपने उस दिन माँ हव्वा को धोखा न दिया होता, तो आज हम सब जन्नत के फूलों के बाग़ में खेल रहे होते।
आगंतुक: आप ग़लत सोच रहे हैं। जब आदम को बनाया गया, तब वे निर्जीव मिट्टी की मूर्ति थे, और जब अल्लाह ने उनमें प्राण फूँका, तब वे एक सजीव मूर्ति बने। उस समय उनमें ज्ञान नाम की कोई चीज़ नहीं थी—यहाँ तक कि लज्जा-बोध भी नहीं। आदम और हव्वा दोनों नग्न थे। हीन पशु और मनुष्य का मुख्य अंतर लज्जा-बोध ही है। आदम-हव्वा में यह लज्जा-बोध निषिद्ध फल खाने के बाद उत्पन्न हुआ। फिर उनमें अच्छे-बुरे, न्याय-अन्याय आदि अनेक प्रकार के ज्ञान का जन्म हुआ—यानी नैतिकता की वह चेतना, जो मनुष्य को सचमुच विवेकशील प्राणी का दर्जा देती है। यह सब उस फल के सेवन से मिला। वहाँ पराजित हुआ अंध-आज्ञापालन और अंध-विश्वास—और जन्म हुआ तर्कबोध का, ज्ञान का। उसी निषिद्ध फल के कारण बीबी हव्वा ऋतुमती हुईं, और स्त्री ने अपने जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण अनुभव—माँ बनने और संतान से प्रेम करने का—अधिकार पाया। अतः यदि वह फल न खाया जाता, तो हज़रत आदम ज्ञानहीन रहते और बीबी हव्वा बाँझ। आदम का ज्ञान और हव्वा की जनन-शक्ति, दोनों ही निषिद्ध फल के कारण उत्पन्न हुए। इसलिए वह फल खिलाकर मैंने न केवल आदम-हव्वा, बल्कि सम्पूर्ण मानवजाति के ज्ञान-विज्ञान और वंश-विस्तार में योगदान दिया—जो किसी फ़रिश्ते ने नहीं किया। वस्तुतः मैं मनुष्य के पिता से भी अधिक श्रद्धेय और गुरु से भी अधिक मान्य हूँ। यदि मैं न होता, तो आपमें से किसी का अस्तित्व ही न होता। दुःख की बात यह है कि कुछ लोग इसे ऊपर-ऊपर से मानना नहीं चाहते, लेकिन व्यवहार में मानते हैं—और यही मेरे लिए पर्याप्त है। क्योंकि एक आस्तिक दिन-रात जितनी बार मेरा नाम लेता है, उतनी बार शायद अपने पिता का भी नहीं लेता। विशेषकर मेरा नाम उनका प्रातःस्मरणीय और अग्रपाठ्य होता है।
आरज़ अली: आपकी बात न मानते हुए भी मानना पड़ेगा कि बातें सुनने में आनंद आ रहा है। इतना विशाल कार्य, इतनी बड़ी योजना—यह कोई साधारण बात नहीं।
आगंतुक: आप सोच रहे हैं कि इस विशाल पृथ्वी के करोड़ों लोगों को पथभ्रष्ट करना मेरे लिए कैसे सम्भव है? आपका यह सोचना निराधार नहीं। लेकिन यह कार्य मेरे लिए उतना कठिन भी नहीं। क्योंकि मैं संसार के हर क्षेत्र और हर व्यक्ति को पथभ्रष्ट नहीं करता—मैं केवल ईमानदारों को गुमराह करता हूँ। यानी जो मुझ पर विश्वास रखते हैं, उन्हें। जिनका मुझ पर ईमान नहीं—जो मेरे अस्तित्व को नकारते हैं—वे तो काफ़िर हैं। क्योंकि पवित्र क़ुरआन में अल्लाह ने कहा है “शैतान है” और हदीस में भी नबी ने कहा है, “शैतान है।” इसके बाद भी यदि कोई कहे “शैतान नहीं है,” तो क्या वह व्यक्ति क़ुरआन-हदीस की वाणी का इनकार करके काफ़िर नहीं ठहरता?
आरज़ अली: क्या आप काफ़िरों को भी गुमराह करते हैं, या केवल मोमिनों को?
आगंतुक: जो काफ़िर के घर जन्म लेता है, वह जन्म से ही काफ़िर है, और वह तरह-तरह के शिर्क और कुफ़्र के काम करता है—वह भी बिना मेरे हस्तक्षेप के। अल्लाह की दृष्टि में उसके सारे अच्छे काम व्यर्थ हैं और वह जहन्नमी है। उसे उसके कर्मों से रोकना, यानी उसके पाप के कामों में बाधा डालना—अल्लाह ने मुझे ऐसा करने का आदेश नहीं दिया। इसलिए अल्लाह के आदेश का पालन करते हुए मैं किसी गैर-मुस्लिम को गुमराह नहीं करता, क्योंकि एक पथभ्रष्ट को दोबारा गुमराह करना तो उसे सही रास्ते पर लाना होगा। यानी जिनका मेरे अस्तित्व पर ईमान नहीं, मैं उन्हें गुमराह नहीं करता—यहाँ तक कि उनके किसी नेक काम में भी दख़ल नहीं देता। इसलिए आज की दुनिया में ईमान वालों से ज़्यादा बेईमान काफ़िर ही नेक काम करते हैं। ध्यान दीजिए, यूरोप के नास्तिक बहुल देशों में लोग अपेक्षाकृत ईमानदार, भ्रष्टाचार-मुक्त होते हैं, समाज सुंदर होता है, और कोई ट्रैफ़िक सिग्नल नहीं तोड़ता। नीदरलैंड जैसे कई देशों में अपराधियों की कमी से जेलखाने तक बंद हो गए हैं। दुनिया के सारे लोग यूरोप-अमेरिका का वीज़ा पाने के लिए पागल हैं—लेकिन एक मुसलमान को काफ़िर नास्तिक के देश में जाने के लिए क्यों इतना लालायित होना चाहिए? दूसरी ओर, धर्म-प्रधान देश भ्रष्टाचार, हत्या, बलात्कार और डकैती में शीर्ष पर हैं—बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान भ्रष्टाचार में दुनिया के अग्रणी हैं।
जैसे मुझे सभी लोगों को गुमराह करने की ज़रूरत नहीं, वैसे ही मैं हर जगह समान रूप से उपस्थित भी नहीं रहता। विश्वासियों के शिक्षा-केन्द्र, उपासना-स्थल और धार्मिक धाम ही मेरे मुख्य कार्य-स्थल हैं। क्योंकि वही मेरे सबसे बड़े क्रियाकेंद्र हैं। मदरसों में आजकल बच्चों के साथ क्या होता है, यह तो आप भली-भांति जानते हैं। मदरसे के हज़ूरगण मेरे सबसे प्रिय ग्राहक हैं।
आरज़ अली: लेकिन आप इंसानों के साथ रहकर भी उन्हें दिखाई क्यों नहीं देते, या आपके अस्तित्व का आभास क्यों नहीं होता? आप कहाँ बैठकर लोगों को गुमराह करते हैं?
आगंतुक: अल्लाह ने मुझे यह शक्ति प्रदान की है कि मैं मानव-शरीर के भीतर प्रवेश करूँ और उसकी रग-रग में प्रवाहित हो सकूँ। जब मैं किसी व्यक्ति को पथभ्रष्ट करना चाहता हूँ, तो उसे बाहर से पुकारकर यह नहीं कहता कि “तुम यह मत करो” या “वह करो।” मैं सीधे उसके शरीर के केंद्र—मस्तिष्क—में प्रवेश करता हूँ। वहाँ बैठकर मैं उसके अवचेतन मन को किसी कार्य को करने या न करने के लिए उकसाता हूँ। मेरा कार्यकेंद्र मनुष्य के मस्तिष्क के भीतर स्थित है। इसलिए दुष्ट लोग कहते हैं—“टोपी के नीचे शैतान रहता है।” उनका यह कथन पूरी तरह झूठ नहीं, क्योंकि मेरा ठिकाना वास्तव में टोपी के नीचे है, ऊपर नहीं।
आरज़ अली: लेकिन इस तरह लोगों को पथभ्रष्ट करके आपका लाभ क्या है? हम तो जन्नत की लालसा या जहन्नम के भय से सब कार्य करते हैं, पर आप इतने वर्षों से यह शैतानी क्यों करते आ रहे हैं?
आगंतुक: इस्लाम का सर्वोच्च अकीदा है कि अल्लाह हर चीज़ पर क़ाबिज़ है, सम्प्रभुता का अकेला मालिक है। मैं अल्लाह की इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं कर सकता—कोई नहीं कर सकता। मैं जो कुछ भी करता हूँ, उससे अल्लाह की ही इच्छा पूरी होती है, और अन्य लोग भी वही करते हैं। दुःख की बात यह है कि ईमानवाले इसे पूरी तरह स्वीकार नहीं करते। वे अल्लाह को कहते हैं “सर्वशक्तिमान,” और फिर भी किसी काम का दोष मुझ पर डाल देते हैं। इतना ही नहीं, वे यह भी कहते हैं—“अच्छे काम का करने वाला अल्लाह है, और बुरे काम का करने वाला शैतान।” अगर ऐसा है, तो “अल्लाह सम्प्रभुता का मालिक है, अपराजेय और सर्वशक्तिमान है”—इस कथन का अर्थ क्या रह जाता है? क्या इससे मुझे ‘अल्लाह का प्रतिद्वंदी और दूसरा शक्तिशाली’ साबित नहीं किया जाता? वस्तुतः ऐसा नहीं है। मेरे हर कार्य में अल्लाह की आंतरिक स्वीकृति होती है। अल्लाह के समर्थन के बिना मैं एक क्षण भी टिक नहीं सकता।
आरज़ अली: मैंने जितना धर्मग्रंथ पढ़ा है, उससे मुझे लगता है कि अल्लाह ने दुनिया के अधिकांश काम करने की शक्ति इंसान को दी है, लेकिन हयात, मौत, रिज़्क और धन-संपत्ति—ये चार बातें अपने हाथ में रखी हैं। यह जो क़त्ल, चोरी-डकैती और व्यभिचार है, इन्हें तो आप ही इंसान से कराते हैं या उकसाते हैं।
आगंतुक: अगर ऐसा है—यानी मेरे उकसाने से अगर कोई व्यक्ति किसी को क़त्ल करता है—तो घायल की रूह क़ब्ज़ करने के लिए अज़्राईल फ़रिश्ते को वहाँ आना चाहिए। और अगर अज़्राईल न आए, तो वह व्यक्ति मरेगा ही नहीं। अगर उस दिन ही उसकी मौत होती है, तो क्या वह दिन उसकी हयात का अंतिम दिन नहीं था? हैज़ा-चेचक जैसी बीमारियों से अनगिनत लोग मरते हैं—जीवाणुओं के हमले से। अभी हाल ही में तुम्हारी दुनिया कोरोना वायरस से त्रस्त हुई। इन जीवाणुओं की शक्ति देता कौन है? इनके लिए रिज़्क का इंतज़ाम करता कौन है?
आरज़ अली: सभी जीवों को खाद्य या रिज़्क तो स्वंय अल्लाह देता है। लेकिन अल्लाह रिज़्क देने के बावजूद कई बार कुछ बुरे लोग दूसरों का हक़ छीन लेते हैं। इसका दोष तो अल्लाह पर नहीं, बल्कि उस इंसान पर है।
आगंतुक: सचमुच? तो इसका मतलब यह है कि वह रिज़्क अल्लाह ने गृहस्वामी के नसीब में लिखा ही नहीं था—वह तो चोर के हिस्से में लिखा था। चोर-डकैत का रिज़्क देता कौन है? मंत्री जो करोड़ों का भ्रष्टाचार करते हैं और जनता के धन से ऐश करते हैं—क्या यह सब रिज़्क अल्लाह ने उनके लिए तय नहीं किया? अल्लाह ने जिसका जो रिज़्क और दौलत जहाँ रखी है—किसी भी तरीके से—वह वहीं से लाकर भोगेगा ही। चोर चोरी करता है, लेकिन असल में वह अल्लाह का ही दिया हुआ अपने हिस्से का खाना खाता है। अगर मैं पथभ्रष्ट करके चोरी-डकैती के ज़रिए एक का हक़ दूसरे को दिलाता हूँ, तो क्या इससे अल्लाह की अक्षमता सिद्ध होती है? क्या अल्लाह मेरे सामने बेबस हैं कि मैं उनके दिए हुए रिज़्क को जनता से छीनकर भ्रष्ट मंत्रियों के घर पहुँचा दूँ? अन्य जीवों का रिज़्क भी अल्लाह ही देता है। गृहस्थ के मुर्ग़ी-बतख और अनाज को चुराकर लोमड़ी-कुत्ते खाते हैं—उन्हें पथभ्रष्ट करता कौन है?
आरज़ अली: आपके चंगुल में फँसकर ही तो लोग ज़िना और व्यभिचार में लिप्त होते हैं। ये सब आपके ही कुकर्म हैं। इसके लिए भी आप अल्लाह को ज़िम्मेदार ठहराएँगे?
आगंतुक: अगर ऐसा है, तो नाजायज़ संतान को जीवनदान देता कौन है? मानव-निर्माण के बाद से ही अल्लाह जानते हैं कि कौन-सा प्राणी कब, कहाँ जन्म लेगा, कौन क्या करेगा, और अंत में कहाँ जाएगा—जन्नत या जहन्नम। वह यह भी जानते थे कि कौन किसके साथ व्यभिचार करेगा। पवित्र हदीस में भी कहा गया है कि अल्लाह ने जिसकी तक़दीर में जितना ज़िना लिखा है, वह उतना करेगा ही [70]। वह चाहते तो व्यभिचार करने वालों को विवाह-बन्धन में बाँध सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा न करके नाजायज़ बच्चों के लिए प्राण रच दिए। नाजायज़ संतान को जीवन देना अल्लाह की ही इच्छा से होता है। व्यभिचार कराकर मैं केवल अल्लाह की उसी इच्छा और तक़दीर के लेख को पूरा करता हूँ।
आरज़ अली: आप सर्वोत्तम तर्कवादी हैं, आपके साथ तर्क में जीतना कठिन है। ईमान ही मुझे आपके तर्कों से बचाएगा। पर मेरा विश्वास है कि यदि आप न होते, तो मानवजाति का बहुत कल्याण होता।
आगंतुक: अरे, मेरे ही निर्देशित मार्ग पर चलकर आज की दुनिया के लोगों की सारी आय-वृद्धि हो रही है, और उसी से धर्म के बाज़ार में व्यापार भी चल रहा है। यदि मैं इस दुनिया को छोड़ दूँ या लोगों को पथभ्रष्ट करने का कार्य बंद कर दूँ, तो मानव समाज में जो संकट उत्पन्न होगा, उससे ईमानवाले भी नहीं बच पाएँगे।
पहला, अनेक सरकारी विभाग अस्तित्वहीन हो जाएँगे। अनेक मंत्री पदच्युत होंगे और शासन-प्रणाली में न्यायपालिका और पुलिस विभाग बेरोज़गार हो जाएँगे। सुर-शिल्पी, चित्रकार भी नहीं रहेंगे, न ही मादक पदार्थों का व्यापार होगा। इसके अलावा ब्याज, रिश्वत, कालाबाज़ारी आदि पेशे भी समाप्त हो जाएँगे। और इससे जो भयावह बेरोज़गारी और आर्थिक संकट आएगा, उसका प्रभाव धार्मिक जगत पर भी पड़ेगा। क्योंकि इन्हीं अवैध आयों से मस्जिद-मदरसे की भरमार और हज यात्रियों की संख्या में वृद्धि हो रही है। वह हदीस तो मैंने पहले भी आपको सुनाई थी—यदि लोग गुनाह न करते, तो अल्लाह इंसान जाति को नष्ट कर देता और ऐसी जाति पैदा करता जो गुनाह करे और तौबा करे।
आरज़ अली: मैं आपकी सारी बातें सुन रहा हूँ, पर मान नहीं रहा। आपने मेरा दिमाग़ काफ़ी उलझा दिया है—यह सच है। फिर भी मैं इतना आसान शिकार नहीं हूँगा। मैं अल्लाह से आपकी शरण से पनाह माँगता हूँ—आऊज़ु बिल्लाही मिनश-शैतानिर-राज़ीम। अच्छा बताइए, हज़ारों वर्षों से यह शैतानी कार्य करते-करते आपको कभी थकान या पीड़ा नहीं होती?
आगंतुक: मुझे किसी चीज़ की कमी नहीं, इसलिए मुझे कोई दुख भी नहीं। केवल एक दुख है—मनुष्य अल्लाह को न जानने और उसकी क़ुदरत को न समझने के कारण व्यर्थ मुझ पर दोषारोपण करता है। अल्लाह इच्छाशक्ति से परिपूर्ण और महान है। अब अधिक समय नहीं है, अंत में एक बात कहकर जाता हूँ—लोग रामायण पढ़ते हैं क्योंकि उसमें रावण है। रावण के बिना रामायण का कोई अर्थ नहीं। “द स्ट्रेंज केस ऑफ़ डॉ. जेकिल एंड मिस्टर हाइड” नाम की एक अद्भुत पुस्तक है—उसे पढ़िए, यदि पहले पढ़ी है तो पुनः पढ़िए। नमाज़ का समय हो रहा है, मस्जिद चलता हूँ।
आरज़ अली: जाने से पहले एक प्रश्न का उत्तर दीजिए—क्या आपके भीतर सचमुच कोई घमंड नहीं है?
आगंतुक: क़ुरआन अच्छे से पढ़िए, उत्तर मिल जाएगा। जब दो लोग साथ रहते हैं या किसी के प्रति गहरा प्रेम रखते हैं, तो एक का स्वभाव धीरे-धीरे दूसरे में उतरने लगता है। विद्यार्थी अपने शिक्षक से प्रेम और सम्मान करते हुए अनजाने ही उसकी तरह बनने लगता है। इसलिए किसी शिक्षक को शिक्षण के समय धूम्रपान नहीं करना चाहिए, क्योंकि विद्यार्थी अनजाने ही उसे सीख सकते हैं। और मैंने तो केवल क़ुरआन का ही अनुसरण किया है—मैंने अल्लाह का रंग अपना लिया। और रंग के मामले में अल्लाह से अधिक सुंदर कौन है? और मैं तो उसका ही इबादतगुज़ार हूँ [71]। अब चलता हूँ। अस्सलामु ‘अलैकुम व रहमतुल्लाहि व बरकातुहू।
आगंतुक व्यक्ति मस्जिद की ओर चला गया।
आरज़ अली की पत्नी का प्रवेश।
आरज़ अली की पत्नी: अब तक किससे बातें कर रहे थे?
आरज़ अली: ठीक समझ नहीं पाया—वह व्यक्ति आशिक़-ए-ख़ुदा था, इब्लीस शैतान या शायद खुद अल्लाह।
आरज़ अली की पत्नी: क्या पागलों जैसी बातें कर रहे हैं! मैंने तो किसी को आते नहीं देखा। जिससे आप बात कर रहे थे, वह कहाँ गया?
आरज़ अली: मस्जिद में—लेकिन नमाज़ पढ़ने या मुसलमानों को पथभ्रष्ट करने—यह पक्का नहीं कह सकता।
आरज़ अली की पत्नी: लगता है गर्मी से आपका दिमाग़ गरम हो गया है। कुछ ठंडा पीएँगे?
आरज़ अली: नहीं, सिर कुछ भारी-भारी लग रहा है। चलिए, नमाज़ अदा करके आता हूँ।
यह कहते ही मस्जिद से अज़ान की आवाज़ आने लगी। खिड़की से धूप अंदर आकर सीधी टेबल पर रखी किताबों पर पड़ रही थी।
(पृष्ठभूमि में संगीत बजेगा)
तुम हाकिम बनकर हुक्म करो, पुलिस बनकर पकड़ो
सर्प बनकर डंसो, ओझा बनकर झाड़ो
तुम बचाओ, तुम मारो।
तुम बिन कोई नहीं अल्लाह, तुम बिन कोई नहीं।।

संदर्भ:
- सह़ीह मुस्लिम, इस्लामिक फ़ाउंडेशन, हदीस: ५४९१ ↩︎
- सूरा काहफ़, आयत ५० ↩︎
- सुनन तिर्मिज़ी, इस्लामिक फ़ाउंडेशन, हदीस: २१५८ ↩︎
- सूरा अनआम, आयत ९७ ↩︎
- सूरा अनआम, आयत ९८ ↩︎
- सूरा साद, आयत ८५ ↩︎
- सूरा आले–इमरान, आयत ५४ ↩︎
- सुनन तिर्मिज़ी, इस्लामिक फ़ाउंडेशन, हदीस: २१५८ ↩︎
- इस्लाम में ‘तक़दीर’ का आधार ↩︎
- सूरा क़मर, आयत ४९ ↩︎
- सूरा बक़रा, आयत ३० ↩︎
- सूरा बकरा, आयत 31–32 ↩︎
- सूरा ज़ारियात, आयत 56 ↩︎
- सूरा बकरा, आयत 31 ↩︎
- सूरा अलक़, आयत 4 ↩︎
- सूरा तकवीर, आयत 29 ↩︎
- सूरा फ़ुस्सिलात, आयत 37 ↩︎
- सहीह मुस्लिम, इस्लामिक फ़ाउंडेशन, हदीस: 6501 ↩︎
- सुनन अबू दाऊद, ताहक़ीक़ संस्करण, अल्लामा अल्बानी अकादमी, हदीस: 4703 ↩︎
- सूरा हदीद, आयत 22 ↩︎
- सूरा कहफ़, आयत 17 ↩︎
- सूरा फ़ातिर, आयत 8 ↩︎
- सूरा तक़वीर, आयत 29 ↩︎
- सूरा आराफ़, आयत 16 ↩︎
- मिशकातुल मसाबिह, हदीस: 2328 ↩︎
- सुनन तिर्मिज़ी, हदीस: 2158 ↩︎
- सूरा अन’आम, आयत 112 ↩︎
- सहीह बुख़ारी, हदीस: 3447 ↩︎
- सुनन इब्ने माजाह, हदीस: 118 ↩︎
- सहीह मुस्लिम, हदीस: 6659 ↩︎
- सहीह मुस्लिम, हदीस: 5949 ↩︎
- सहीह मुस्लिम, हदीस: 5948 ↩︎
- सहीह मुस्लिम, हदीस: 6852 ↩︎
- सूरा क़सस, आयत 68 ↩︎
- सूरा अल-मुल्क, आयत 5 ↩︎
- सूरा हिज़्र, आयत 23 ↩︎
- इस्लाम में अमानवीय दासप्रथा ↩︎
- सूरा नहल, आयत 36 ↩︎
- जनसंख्या वृद्धि, मातृ और शिशु मृत्यु में इस्लाम की भूमिका ↩︎
- सहीह बुख़ारी, तौहीद पब्लिकेशन्स, हदीसः 3330 ↩︎
- इस्लाम और महिला – सर्वोच्च सम्मान और गरिमा! ↩︎
- इस्लाम क्या इंसाफ़ स्थापित करता है? ↩︎
- इस्लामी शरीयत राज्य में गैर-मुसलमानों के अधिकार ↩︎
- सूरा नहल, आयत 36 ↩︎
- सूरा कहफ़, आयत 86-90 ↩︎
- सहीह बुख़ारी, इस्लामिक फ़ाउंडेशन, हदीसः 2972 ↩︎
- सहीह बुख़ारी, इस्लामिक फ़ाउंडेशन, हदीसः 4439 ↩︎
- सहीह बुख़ारी, इस्लामिक फ़ाउंडेशन, हदीसः 4440 ↩︎
- सहीह मुस्लिम, इस्लामिक फ़ाउंडेशन, हदीसः 296 ↩︎
- सहीह मुस्लिम, इस्लामिक फ़ाउंडेशन, हदीसः 298 ↩︎
- सहीह मुस्लिम, इस्लामिक फ़ाउंडेशन, हदीसः 299 ↩︎
- सहीह हदीस-ए-क़ुदसी, हदीसः 161 ↩︎
- सहीह बुख़ारी, तौहीद पब्लिकेशन, हदीसः 4802 ↩︎
- सहीह बुख़ारी, तौहीद पब्लिकेशन, हदीसः 4803 ↩︎
- सहीह बुख़ारी, तौहीद पब्लिकेशन, हदीसः 7433 ↩︎
- सहीह मुस्लिम, हदीस अकादमी, हदीसः 289 ↩︎
- हदीस संभवार, हदीसः 2309 ↩︎
- चित्रकला या तस्वीर के विषय में इस्लाम का नियम ↩︎
- इस्लाम और विज्ञान शिक्षा का द्वंद्व ↩︎
- सहीह बुख़ारी, तौहीद पब्लिकेशन, हदीसः 6596 ↩︎
- सुनन अबू दाऊद, इस्लामिक फाउंडेशन, हदीसः 4539 ↩︎
- सुनन इब्न माजह, हदीसः 43 ↩︎
- क्या इस्लाम जांचने का अवसर देता है? ↩︎
- सहीह बुख़ारी, इस्लामिक फाउंडेशन, हदीसः 3776 ↩︎
- सह़ीह बुख़ारी, तौहीद पब्लिकेशन, हदीसः ३४३१ ↩︎
- संदर्भ… ↩︎
- सह़ीह मुस्लिम… ↩︎
- सूरा बकरा, आयत ३० ↩︎
- मिशकातुल-मसाबिह, हदीसः ३২৩८ ↩︎
- सहीह मुस्लिम, इस्लामिक फाउंडेशन, हदीसः ६५१३ ↩︎
- सूरा बक़रा, आयत १३८ ↩︎